________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्व अन्धकार में कुछ नहीं दीखता, क्या यह मान लिया जाए कि यहाँ कुछ भी नहीं है ? हान-शक्ति की एकदेशीयता से किसी भी सत्-पदार्थ का अखित्व स्वीकार न करना उचित नहीं होता। अब हमें पुनर्जन्म की सामान्य स्थिति पर भी कुछ दृष्टिपात कर लेना चाहिए। दुनियां में कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जो अत्यन्त-असत् से सत् बन जाए-जिसका कोई मी अस्तित्व नहीं, वह अपना अस्तित्व बना ले। यहाँ "असत्रोणत्यि भावो, सोणत्यि निसे हो"या-"नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः । ये पंक्तियां बड़ी उपयुक्त हैं। अभाव से भाव एवं भाव से प्रभाव नहीं होता है तब फिर जन्म
और मृत्यु, नाश और उत्पाद, यह क्या है ? यह परिवर्तन है प्रत्येक पदार्थ में परिवर्तन होता है। परिवर्तन से पदार्थ एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में चला जाता है। किन्तु न तो सर्वथा नष्ट होता है और न सर्वथा उत्पन्न भी। दूसरे-दूसरे पदार्थों में भी परिवर्तन होता है, वह हमारे सामने है। प्राणियों में भी परिवर्तन होता है। व जन्मते हैं, मरते हैं। जन्म का अर्थ अत्यन्त नई वस्तु की उत्पत्ति नहीं और मृत्यु से जीव का अत्यन्त उच्छेद नहीं होता। केवल वैसा ही परिवर्तन है, जैसे यात्री एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में चले जाते हैं। अच्छा होगा कि उक्त सूत्र को एक बार फिर दोहराया जाए-यह एक ध्रुव सत्य है कि सत्ता [अत्यन्त हाँ से असता [अत्यन्त नहीं] एवं असत्ता से सत्ता कभी नहीं होती। परिवर्तन को जोड़ने वाली कड़ी श्रात्मा है। वह अन्वयी है। पूर्वजन्म और उत्तर जन्म दोनों उसकी अवस्थाएं हैं। वह दोनों में एक रूप से रहती है। अतएव अतीत और भविष्य की घटनावलियों की शाला जुड़ती है। शरीर-शास्त्र के अनुसार सात वर्ष के बाद शरीर के पूर्व परमाय च्युत हो जाते हैं-सब अवयव नए बन जाते हैं। इस सर्वाङ्गीण परिवर्तन में आत्मा का लोप नहीं होता। तपः फिर मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व कैसे मिट जाएगा ! अन्तर-काल .
. . . . . . . . . . प्राणी मरता है और जन्मता है, एक शरीर को छोड़ता है और दूसरा शरीर बनाता है। मृत्यु और जन्म के बीच का समय अन्तर काल कहा जाता है। उसका परिमाण एक, दो, तीन या चार समय तक का है. अन्तरकाल में