________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्व
अनादिकालीन प्रवाह में वह शरीर पर्यायात्मक एक कड़ी और जुड़ जाती है। उसमें कोई विरोध नहीं आता । जैसे कहा भी है-"तस्प चानादि कर्मसम्बद्धस्य कदाचिदपि सांसारिकस्यात्मनः स्वरूपेऽनवस्थानात् सत्यप्वमूतत्वे मूर्तेन कर्मणा सम्बन्धो न विरुध्यते २३" संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्म से बन्धा हुआ है। वह कभी भी अपने रूप में स्थित नहीं, अतएव अमूर्त होने पर भी उसका मूर्त कर्म (अचेतन द्रव्य) के साथ सम्बन्ध होने में कोई आपत्ति नहीं होती। आत्मा पर विज्ञान के प्रयोग
वैज्ञानिकों ने ६२ तत्त्व माने हैं। वे सब मूर्तिमान् हैं। उन्होंने जितने प्रयोग किये हैं, वे सभी मूर्त द्रव्यों पर ही किये हैं अमूर्त तत्त्व इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं बनता। उस पर प्रयोग भी नहीं किये जा सकते । अात्मा अमूर्त है, इसीलिए आज के वैज्ञानिक, भौतिक साधन सम्पन्न होते हुए भी उसका पता नहीं लगा मके। किन्तु भौतिक साधनों से प्रात्मा का अस्तित्व नहीं जाना जाता तो उसका नास्तित्व भी नहीं जाना जाता। शरीर पर किये गए विविध प्रयोगों से आत्मा की स्थिति स्पष्ट नहीं होती। रूस के जीव-विज्ञान [Biology] के प्रसिद्ध विद्वान् “पावलोफ" ने एक कुत्ते का दिमाग निकाल लिया । उससे वह शून्यवत् हो गया। उसकी चेष्टाएँ स्तब्ध हो गई। वह अपने मालिक और खाद्य तक को नहीं पहचान पाता। फिर भी वह मरा नहीं । इन्जेक्शनों द्वारा उसे खाद्य तत्व दिया जाता रहा। इस प्रयोग पर उन्होंने यह बताया कि दिमाग ही चेतना है। उनके निकल जाने पर प्राणी में कुछ भी चैतन्य नहीं रहता। इस पर हमें अधिक टीका टिप्पणी करने की कोई आवश्यकता नहीं। यहाँ सिर्फ इतना समझना ही प्राप्त होगा कि दिमाग चेतना का उत्पादक नहीं, किन्तु वह मानस प्रवृत्तियों के उपयोग का साधन है। दिमाग निकाल लेने पर उसकी मानसिक चेष्टाएं रुक गई। इसका अर्थ यह नहीं कि उसकी चेतना विलीन हो गई। यदि ऐसा होता तो वह बीवित मी नहीं रह पाता। खाद्य का स्वीकरण, रतसंचार, प्राणापान श्रादि चेतनावान् प्राणी में ही होता है। बहुत सारे ऐसे भी प्राणी है, जिनके मस्तिष्क होता ही नहीं। वह केवल मानस-प्रवृति वाले पानी के ही होता है।