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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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चित्र प्रतिबिम्बित रहते हैं। जब उन्हें तदनुकूल सामग्री द्वारा नई प्रेरणा मिलती
है तब वे जागृत हो जाते हैं। निम्नस्तर से ऊपरीस्तर में आ जाते हैं, इसी का नाम स्मृति है । इसके लिए भौतिक तत्वों से पृथक् अन्वयी आत्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं । भूताद्वैतवादी वैज्ञानिकों ने भौतिक प्रयोगों के द्वारा अभौतिक सत्ता का नास्तित्व सिद्ध करने की बहुमुखी चेष्टाएं की हैं, फिर भी भौतिक प्रयोगों का क्षेत्र भौतिकता तक ही सीमित रहता है, अमूर्त आत्मा या मन का नास्तित्व सिद्ध करने में उसका अधिकार सम्पन्न नहीं होता । मन भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार का होता है ।
मनन, चिन्तन 'तर्क, अनुमान, स्मृति 'तदेवेदम्' इस प्रकार संकलनात्मक ज्ञान- अतीत और वर्तमान शान की जोड़ करना, ये कार्य अभौतिक मन के हैं ५५ । भौतिक मन उसकी शानात्मक प्रवृत्ति का साधन है । जिसे हम मस्तिष्क या 'औपचारिक ज्ञान तन्तु' भी कह सकते हैं। मस्तिष्क शरीर का are है । उस पर विभिन्न प्रयोग करने पर मानसिक स्थिति में परिवर्तन पाया जाए, अर्ध स्मरण या विस्मरण आदि मिले, यह कोई आश्चर्य जनक घटना नहीं। क्योंकि कारण के अभाव में कार्य अभिव्यक्त नहीं होता, यह निश्चित तथ्य हमारे सामने है। भौतिकवादी तो "मस्तिष्क भी भौतिक है या और कुछ - इस समस्या में उलके हुए हैं। उन्हीं के शब्दों में पढ़िए-मन सिर्फ भौतिक तत्व नहीं है, ऐसा होने पर उसके विचित्रगुण-चेतन क्रियाओं की व्याख्या नहीं हो सकती। मन (मस्तिष्क) में ऐसे नए गुण देखे जाते हैं, जो पहिले भौतिकतत्त्वों में मौजूद न थे, इसलिए भौतिक तत्त्वों और मन को एक नहीं कहा जा सकता । साथ ही भौतिक तत्वों से मन इतना दूर भी नहीं है, कि उसे बिलकुल ही एक अलग तत्त्व माना जाए ५६ ११
इन पंक्तियों से यह समझा जाता है कि वैज्ञानिक जगत् मन के विषय में ही नहीं, किन्तु मन के साधनभूत मस्तिष्क के बारे में भी अभी कितना संदिग्ध है 1 अस्तु मस्तिष्क को अतीत के प्रतिबिम्बों का वाहक और स्मृति का साधन मानकर स्वतंत्र चेतना का लोप नहीं किया जा सकता। मस्तिष्क फोटो के नेगेटिव प्लेट [ Negative Plate ] की भांति वर्तमान के चित्रों को खींच सकता है, सुरक्षित रख सकता है, इस कल्पना के आधार पर उसे