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जैन दर्शन के मौलिक तत्वं मानसिक किया का शरीर पर प्रभाव
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(१) निरन्तर चिन्ता एवं दिमागी परिश्रम से शरीर थक जाता है। (२) सुख-दुःख का शरीर पर प्रभाव होता है। (३) उदासीन-वृत्ति एवं चिन्ता से पाचन शक्ति मन्द हो जाती है,
शरीर रुश हो जाता है। क्रोध आदि से रक्त विषाक्त बन .
जाता है। "चित्तायतं धातुवढं शरीरं, स्वस्ये चिते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति । तस्माबित्तं सर्वथा रक्षणीयं, चित्ते नष्टे धातवो यान्ति नाशम् ।"
अर्थात्-"यह धातुमय शरीर चित्त के अधीन है। चित्त स्वस्थ होता है, तब बुद्धि में स्फुरणा आती है। इसलिए चित्त को सर्वथा स्वस्थ रखना चाहिए। चित्त-ग्लानि होने से धातुएं भी क्षीण हो जाती है।"
इन घटनाओं के बालोकन के बाद शरीर और मन के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में सन्देह का कोई अवकाश नहीं रहता। इस प्रकार अन्योन्याश्रयबादी मानसिक एवं शारीरिक सम्बन्ध के निर्णय तक पहुंच गए। दोनों शक्तियों का पृथक् अस्तित्व स्वीकार कर लिया। किन्तु उनके सामने एक उसमन अब तक भी मौज़द है। दो विसदृश पदार्थों के बीच कार्य कारण का सम्बन्ध कैसे ? इसका वे अभी समाधान नहीं कर पाए हैं। दो विसदृश पदार्थों का सम्बन्ध
[अरूप और सरूप का सम्बन्ध ] आत्मा और शरीर-ये विजातीय द्रव्य हैं । आत्मा चेतन और अरूप है, शरीर अचेतन और सरूप । इस दशा में दोनों का सम्बन्ध कैसे हो सकता है। इसका समाधान जैन दर्शन में यों किया गया है। संसारी श्रात्मा सूक्ष्म और स्थल, इन दो प्रकार के शरीरों से वेष्टित रहता है। एक जन्म से दूसरे जन्म में लाने के समय स्थूल शरीर छूट जाता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता। सूक्ष्म शरीरधारी जीवों को एक के बाद दूसरे तीसरे स्थूल शरीर का निर्माण करना पड़ता है। सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा शरीर धारण करते हैं, इसलिए अमूर्त जीव मूर्त शरीर में कैसे प्रवेश करते हैं यह प्रश्न ही नहीं उठता।