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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व ..
३५. प्राणमय प्रात्मा जैसे अन्नमय कोश के भीतर रहता है, वैसे ही मनोमय आत्मा प्राणमय कोश के भीतर रहता है ।
इस मनोमय शरीर की तुलना मनःपर्याति से हो सकती है। मनोमय कोश के भीतर विज्ञानमय कोश है ""
निश्चयास्मिका बुद्धि जो है, वही विशान है। वह अन्तःकरण का अध्यवसाय रूप धर्म है। इस निश्चयात्मिका बुद्धि से उत्पन्न होने वाला अात्मा विज्ञानमय है। इसकी तुलना भाव-मन, चेतन-मन से होती है। विज्ञानमय आत्मा के भीतर आनन्दमय प्रात्मा रहता है | इसकी तुलना आत्मा की सुखानुभूति की दशा से हो सकती है। सजोव और निर्जीव पदार्थ का पृथक्करण
प्राणी और अप्राणी में क्या मेद है, यह प्रश्न कितनी बार हृदय को श्रान्दोलित नहीं करता। प्राण प्रत्यक्ष नहीं हैं। उनकी जानकारी के लिए किसी एक लक्षण की आवश्यकता होती है। वह लक्षण पर्याप्ति है। पर्याप्ति के द्वारा प्राणी विसदृश द्रव्यों (पुद्गलों) का ग्रहण, स्वरूप में परिणमन और विसर्जन करता है।
जीव
अजीव,
प्रजनन शक्ति नहीं। वृद्धि नहीं ॥
(१) प्रजनन शक्ति ( संतति-उत्पादन) (२) वृद्धि (३) आहार-ग्रहण३५
स्वरूप में परिणमन
विसर्जन......... (४) जागरण, नौद, परिश्रम
विधाम (५) आत्मरक्षा के लिए प्रयल (६) भय-प्रास