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जैन दर्शन मालिक तत्व क्षय और दूसरे पेज का उदय-निरोध (अन्तर मुहूतं तक उदय में नशा सके, वैसा विष्कम्भन ) होता है। प्रतिकृत्तिकरण' के दो प्रधान कार्य है-(१) मिथ्यात्व परमाणुओं को दो रूपों में पुलीकृत कर उनमें अन्तर करना' और (२) पहले पुल के परमाणुओं को खपाना। यहाँ अनिवृत्तिकरण का काल समास हो जाता है। इसके बाद 'अन्तरकरण' की मर्यादा-मिथ्यात्व-परमाणुओं के विपाक से खाली अन्तर्-मुहूर्त का जो काल है, वह औपशमिक सम्यग दर्शन है। इनमें पहला विशुद्ध, दसरा विशुद्धतर और तीसरा विशुद्धतम है। पहले में प्रन्थि समीपममन,
दूसरे में प्रन्थि-मेद और तीसरे में अन्तर करण होता है। . . २५-क्षायोपशमिक “सम्यग-दर्शनी के मिथ्यात्व और मिश्र पुल उपशान्त
रहते हैं, सम्यक्त्व पुल का वेटन रहता है। इस प्रकार विपुल के उपशम
और तीसरे पुख के वेदन (वेदन द्वारा क्षय) के संयोग से क्षायोपथमिक
दर्शन बनता है। २६-तहिया णं तु भावाणं, सम्भावे उवएसणं। भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मत्तं
तं वियाहियं । -उत्त० २८११५ २७-असंजमं परियाणामि संजमं उपसंपज्जामि, अवभं परियाणामि बंभं
उवसंपज्जामि, अकप्पं परियाणामि कप्पं उवसंपज्जामि, अन्नाणं परियाणामि नाणं उत्रसंपजामि, अकिरियं परियाणामि किरियं उवसं पज्जामि, मिच्छत्तं परियाणामि समत्तं उपसंपज्जामि अबोहिं परियाणामि बोहिं उपसंपज्जामि, श्रममा परियाणामि, मग्गं
उवसंपज्जामि। -आब. २८-तीर्थ प्रवर्तक वीतराग, राग-द्वेष-विजेता। २६-मुक्त परमात्मा ३०-सर्वश-सर्व-दर्शन ३१-चत्तारि मंगलं.. केवली पएणतं धम्म सरणं पवज्जामि |... -श्राव० ३२-अरिहंतो महदेवी। जावनीवं सुसाहुश्री गुरुणो । ज़िणपण्णत्तं तसं श्य
समत्तं मए गहियं । -पाव. ३३-स्था० ३.१