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जैन दर्शन के मौलिक तस्व
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जैन दृष्टि से आत्मा का स्वरूप
(१) जीव स्वरूपतः अनादि अनन्त और नित्यानित्य :--
जीव अनादि-निधन ( न श्रादि और न अन्त ) है । अविनाशी और अक्षय है । द्रव्य-नय की अपेक्षा से उसका स्वरूप नष्ट नहीं होता, इसलिए नित्य और पर्याय नय की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न वस्तुत्रों में वह परिणत होता रहता है, इसलिए अनित्य है ।
( २ ) संसारी जीव और शरीर का अभेद :--
जैसे पिंजड़े से पक्षी, घड़े से बेर और गंजी से आदमी भिन्न नहीं होता, वैसे ही संसारी जीव शरीर से भिन्न नहीं होता ।
जैसे दूध और पानी, तिल और तेल, कुसुम और गन्ध-ये एक लगते हैं, वैसे ही संसार-दशा में जीव और शरीर एक लगते हैं।
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( ३ ) जीव का परिमाण :
जीव का शरीर के अनुसार संकोच और विस्तार होता है। जो जीव हाथी के शरीर में होता है, वह कुन्थु के शरीर में मी उत्पन्न हो जाता है । संकोच और विस्तार -- दोनों दशाओं में प्रदेश - संख्या, श्रवयव- संख्या समान रहती है ।
( ४ ) आत्मा और काल की तुलना - श्रनादि-अनन्त की दृष्टि से :-- जैसे काल अनादि और अविनाशी है, वैसे ही जीव भी तीनों कालों में अनादि और अविनाशी है ।
(५) आत्मा और आकाश की तुलना -अमूर्त की दृष्टि से :
जैसे आकाश अमूर्त है, फिर भी वह श्रवगाह-गुण से जाना जाता है, वैसे ही जीव अमूर्त है और वह विज्ञान-गुण से जाना जाता है ।
(६) जीव और शान आदि का आधार-आधेय सम्बन्ध :--
जैसे पृथ्वी सब द्रव्यों का आधार है, वैसे ही जीव ज्ञान श्रादि गुणों का श्राधार है ।
(७) जीव और आकाश की तुलना -- नित्य की दृष्टि से :
जैसे आकाश तीनों कालों में अक्षय, अनन्त और अतुल होता है, वैसे ही जीव भी तीनों कालों में अविनाशी श्रवस्थित होता है ।