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"जन दर्शन के मौलिक तत्व
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प्रिय विषयों में अतृप्त व्यक्ति के माया-मृषा और लोभ बढ़ते हैं, वह
. दुःख-मुक्ति नहीं पा सकता ०
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परिग्रह में श्रासक्त व्यक्ति के माया मृषा और लोभ बढ़ते हैं, वह दुःखमुक्ति नहीं पा सकता' २१ 1
दुःख आरम्भ से पैदा होता है २२ ।
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दुःख हिंसा से पैदा होता है - " दुःख कामना से पैदा होता है २४ ।
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जहाँ आरम्भ है, हिंसा, है, कामना है, वहाँ राग-द्वेष है। जहाँ रागद्वेष है वहाँ क्रोध, मान, माया, लोभ, घृणा, हर्ष, विषाद, हास्य, भय, शोक और वासनाएं है २५ । जहाँ ये सब हैं, वहाँ कर्म ( बन्धन ) है । जहाँ कर्म है, वहाँ संसार है; जहाँ संसार है, वहाँ जन्म है। जहाँ जन्म है, वहाँ जरा है, रोग है, मौत है । जहाँ ये हैं, वहाँ दुःख है" ।
भव तृष्णा विषैली बेल है। यह भयंकर है और इसके फल बड़े डरावने होते हैं२७ ।
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महात्मा बुद्ध ने कहा- मनुष्य अपनी आंख से रूप देखता है। प्रियकर लगे तो उसमें आसक्त हो जाता है, अप्रियकर हो तो उससे दूर भागता है । कान से शब्द सुनता है, प्रियकर लगे तो उसमें आसक्त हो जाता है, अप्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है । घ्राण से गन्ध सूंघता है, प्रियकर लगे तो उसमें श्रासक्त हो जाता है, प्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है । जिहा से रस चखता है, प्रियकर लगे तो उसमें श्रासक्त हो जाता है, अप्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है । काय से स्पर्श करता है, प्रियकर लगे तो उसमें श्रासक्त हो जाता है, श्रप्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है । मन से मन के विषय (धर्म) का चिन्तन करता है, प्रियकर लगे तो उसमें श्रासक्त हो जाता है अप्रियकर लगे तो उससे दूर भागता है।
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इस प्रकार आसक्त होनेवाला तथा दूर भागनेवाला जिस दुःख-सुख वा दुख-सुख, किसी भी प्रकार की वेदना अनुभूति का अनुभव करता है, वह उस बेदना में आनन्द लेता है, प्रशंसा करता है, उसे अपनाता है । वेदना को 1 'जो अपना बनाना है, वही उसमें राग उत्पन्न होना है। वेदना में जो राग है,