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________________ - जैन दर्शन के मौलिक तत्व . [३३० मुनि-जीवन की योग्यता उन्हीं में पाती है, जिनमें तीन वैराग्य का उदय हो जाए। बामण-वेषधारी इन्द्र ने राजर्षि नमि से कहा-"राजर्षि ! गृहवास घोर पाश्रम है। तुम इसे छोड़ दूसरे आभम में जाना चाहते हो, यह उचित नहीं। तुम यहीं रहो और यहीं धर्म-पोषक कार्य करो। _ नमि राजर्षि बोले-ब्राह्मण ! मास-मास का उपवास करनेवाला और पारणा में कुश की नोक टिके उतना स्वल्प आहार खाने वाला गृहस्थ मुनिधर्म की सोलहवीं कला की तुलना में भी नहीं पाता। जिसे शाश्वत घर में विश्वास नहीं, वही नश्वर घर का निर्माण करता है । यही है तीव्र वैराग्य । मोक्ष प्राप्ति की दृष्टि से विचार न हो, तब गृहवास ही सब कुछ है । उस दृष्टि से विचार किया जाए, तब आत्म-साक्षात्कार ही सब कुछ है। गृहवास और गृहत्याग का आधार है-आत्म-विकास का तारतम्य । गौतम ने पूछा-भगवन् ! गृहवास असार है और गृह-त्याग सारयह जानकर भला घर में कौन रहे ? भगवान् ने कहा-गौतम ! जो प्रमत्त हो वही रहे और कौन रहे । ___ किन्तु यह ध्यान रहे, श्रमण-परम्परा वेष को महत्त्व देती भी है और नहीं भी। साधना के अनुकूल वातावरण भी चाहिए-इस दृष्टि से वेष-परिवर्तन गृहवास का त्याग आदि-श्रादि बाहरी वातावरण की विशुद्धि का भी महत्व है। आन्तरिक विशुद्धि का उत्कृष्ट उदय होने पर गृहस्थ या किसी के भी वेष में आत्मा मुक्त हो सकता है। मुक्ति-वेष या बाहरी वातावरण के कृत्रिम परिवर्तन से नहीं होती, किन्तु आत्मिक उदय से होती है। आत्मा का सहज उदय किसी पिरल व्यक्ति में ही होता है। उसे सामान्य मार्ग नहीं माना जा सकता। सामान्य मार्ग यह है कि मुमुक्षु व्यक्ति अभ्यास करते-करते मुक्ति-लाभ करते हैं। अभ्यास के कमिक विकास के लिए बाहरी वातावरण को उसके अनुकूल बनाना आवश्यक है। साधना आखिर मार्ग है, प्राप्ति नहीं । मार्ग में चलने वाला भटक भी सकता है। जैन-भागमों और बौद्ध-पिटको में ऐसा यस किया गया है, जिससे
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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