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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
२ अमूर्त पदार्थ मात्र अषिमागी नित्य होते हैं। प्रारमा नित्य होने के उपरान्त भी स्वकृत अशानादि दोषों के बन्धन में बन्धा हुआ है, वह बन्धन ही संसार (जन्म-मरण) का मूल है।
अक्रियावाद का सार यह रहा कि:
"यह लोक इतना ही है, जितना दृष्टिगोचर होता है । इस जगत् में केलब पृथ्वी, जल, अमि, वायु और आकाश, ये पांच महाभूत ही है। इनके समुदय से चैतन्य या आत्मा पैदा होती है .."। भूतों का नारा होने पर उसका भी नाश हो जाता है-जीवात्मा कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। जिस प्रकार अरणि की लकड़ी से अमि, दूध से घी और तिलों से तैल पैदा होता है, वैसे ही पंच भूतात्मक शरीर से जीव उत्पन्न होता है । शरीर नष्ट होने पर आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं रहती।
इस प्रकार दोनों प्रवाहों से जो धाराएं निकलती हैं, वे हमारे सामने है। हमें इनको अथ से इति तक परखना चाहिए क्योंकि इनसे केवल दार्शनिक दृष्टिकोण ही नहीं बनता, किन्तु वैयक्तिक जीवन से लेकर सामाजिक राष्टिय एवं धार्मिक जीवन की नींव इन्हीं पर खड़ी होती है। क्रियावादी और अक्रियावादी का जीवन पथ एक नहीं हो सकता। क्रियावादी के प्रत्येक कार्य में आत्म-शुद्धि का ख्याल होगा, जबकि प्रक्रियावादी को उसकी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। आज बहुत सारे क्रियावादी भी हिंसावहल विचारधारा में बह चले हैं। जीवन की क्षणभंगुरता को विसार कर महारम्भ और महापरिग्रह में फंसे हुए हैं। जीवन-व्यवहार में यह समझना कठिन हो रहा है कि कौन क्रियावादी है और कौन अक्रियावादी ? अक्रिया. बादी सुदूर भविष्य की न सोचें तो कोई आश्चर्य नहीं। क्रियावादी आत्मा को भुला बैलें। आगे-पीछे न देखें तो कहना होगा कि वे केवल परिभाषा में क्रियावादी है, सही अर्थ में नहीं। भविष्य को सोचने का अर्थ वर्तमान से आँखें मूंद लेना नहीं है। भविष्य को समझने का अर्थ है वर्तमान को सुधारना । श्राज के जीवन की सुखमय साधना ही कला को सुखमय बना सकती है। विषय-वासनाओं में फंसकर प्रात्म-शुद्धि की उपेक्षा करना क्रियावादी के लिए प्राय-पात से भी अधिक भयंकर है। उसे प्रात्म-अन्वेषण करना चाहिए।