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जैन दर्शन के मौलिक तत्व महाव्रती मुनि को अपने लिए बने हुए श्राहार का संविभाग देना प्रतिथिसंविभाग-व्रत है।
चारों व्रत अभ्यासात्मक या बार-बार करने योग्य है। इसलिए इन्हें शिक्षा व्रत कहा गया।
ये बारह व्रत हैं। इनके अधिकारी को देशव्रती श्रावक कहा जाता है।
छठी भूमिका से लेकर अगली सारी भूमिकाएँ मुनि-जीवन की है। सर्व-विरति __ यह छठी भूमिका है। इसका अधिकारी महाव्रती होता हैं। महावत पाँच है-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। रात्रि-भोजनबिरति छठा व्रत है । आचार्य हरिभद्र के अनुसार भगवान् ऋषभ देव और भगवान् महावीर के समय में रात्रि-भोजन को मूल गुण माना जाता था। इसलिए इसे महाव्रत के साथ व्रत रूप में रखा गया है। शेष बाईस तीर्थंकरों के समय यह उत्तर-गुण के रूप में रहता आया है। इसलिए इसे अलग व्रत का रूप नहीं मिलता १८॥
जैन परिभाषा के अनुसार व्रत या महाव्रत मूल गुणों को कहा जाता है। उनके पोषक गुण उत्तर गुण कहलाते हैं। उन्हें व्रत की संशा नहीं दी जाती। मूलगुण की मान्यता में परिवर्तन होता रहा है-धर्म का निरूपण विभिन्न रूपों में मिलता है। व्रत-विकास
'अहिंसा शाश्वत धर्म है-यह एक व्रतात्मक धर्म का निरूपण है ।' सत्य और अहिंसा यह दो धर्मों का निरूपण है । 'अहिंसा, सत्य और बहिर्धादान-यह तीन यामों का निरूपण है।' 'अहिंसा सत्य, अचौर्य, और बहिर्धादान-यह चतुर्याम-धर्म का निरूपण है।'
'अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह'-यह पंच महावतों का निरूपण है। _जैन सूत्रों के अनुसार बाईस तीर्थंकरों के समय में चतुर्याम-धर्म रहा और पहले और चौबीसवें तीर्थंकरों के समय में पंचयाम धर्म । तीन याम का निरूपण आचारांग में मिलता है । किन्तु उसकी परम्परा कब रहो, इसको कोई जानकारी नहीं मिलती। यही बात दो और एक महानत के