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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं
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पांचवा सूत्र है- ध्येय और ध्याता का एकत्व ध्येय परमात्मपद है। वह मुझ से भिन्न नहीं है। ध्यान आदि की समग्र साधना होने पर मेरा ध्येय रूप प्रगट हो जाएगा ।
गूढ़वाद के द्वारा साधक को अनेक प्रकार की आध्यात्मिक शक्तियां और योगजन्य विभूतियां प्राप्त होती हैं।
अध्यात्म-शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही पूर्ण सत्य को साक्षात् जान लेता है।
थोड़े में गूढ़वाद का मर्म आत्मा, जो रहस्यमय पदार्थ है, की शोध है। उसे पा लेने के बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहता, गूढ़ नहीं रहता। अक्रियावाद
दर्शन के इतिहास में वह दिन अति महत्वपूर्ण था, जिस दिन श्रक्रियाबाद का सिद्धान्त व्यवस्थित हुआ । श्रात्मा की खोज भी उसी दिन पूर्ण हुई, जिस दिन मननशील मनुष्य ने अक्रियावाद का मर्म समझा ।
मोक्ष का स्वरूप भी उसी दिन निश्चित हुआ, जब दार्शनिक जगत् ने 'क्रियावाद' को निकट से देखा ।
गौतम स्वामी ने पूछा - "भगवन् ! जीव सक्रिय हैं या अक्रिय ?” भगवान् ने कहा- गौतम ! "जीव सक्रिय भी हैं और अकिय भी । जीव दो प्रकार के हैं - (१) मुक्त और ( २ ) संसारी । मुक्त जीव प्रक्रिय होते हैं । योगी ( शैलेशी अवस्था प्रतिपन्न ) जीवों को छोड़ शेष सब संसारी जीब सक्रिय होते हैं।
शरीर-धारी के लिए किया सहज है, ऐसा माना जाता था । पर 'आत्मा का सहज रूप क्रियामय है'। इस संवित् का उदय होते ही 'क्रिया श्रात्मा का विभाव है' -यह निश्चय हो गया । क्रिया वीर्य से पैदा होती है 1 योग्यतात्मक वीर्य मुक्त जीवों में भी होता है । किन्तु शरीर के प्रस्फुटित नहीं होता। इसलिए वह लब्धि-वीर्य ही कहलाता है। शरीर के सहयोग से लब्धि-वीर्य (योगात्मक-वीर्य ) क्रियात्मक बन जाता है। इसलिए उसे 'करण-वीर्य' की संज्ञा दी गई। वह शरीरधारी के ही होता है *" |
बिना वह
वाद का परम या चरम साध्य मोच है। मोच का मतलब है