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२७] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
‘जो नश्वरता की ओर पीठ किये चलता है वह श्रेयोदशी ( अमृतगामी) है, जो श्रेयोदों है वही नश्वरता की ओर पीठ किये चलता है "
गौतम | मैंने दो प्रकार की प्रज्ञाओं का निरूपण किया है
(१)श-प्रशा (२) प्रत्याख्यान-प्रशा। - श-प्रशा का विषय समूचा विश्व है। जितने द्रव्य हैं वे सब शेय है।
प्रत्याख्यान-प्रज्ञा का विषय विजातीय-द्रव्य (पुद्गल-द्रव्य) और उसकी संग्राहक प्रवृत्तियां हैं। जीव और अजीव-ये दो मुलभूत तत्त्व हैं। विजातीय द्रव्य के संग्रह की संज्ञा बन्ध है। उसकी विपाक-दशा का नाम पुण्य और पाप है।
विजातीय-द्रव्य की संग्राहक प्रवृत्ति का नाम 'श्रास्रव' है। विजातीय-द्रव्य के निरोध की दशा का नाम 'संवर' है। विजातीय-द्रव्य को क्षीण करने वाली प्रवृत्ति का नाम 'निर्जरा' है। विजातीय-द्रव्य की पूर्ण-प्रत्याख्यान दशा 'मोक्ष' है। ज्ञ-प्रज्ञा की दृष्टि से द्रव्य-मात्र सत्य है। प्रत्याख्यान प्रज्ञा की दृष्टि से मोक्ष और उसके साधन 'संवर' और 'निर्जरा'-ये सत्य हैं। सत्य के ज्ञान और सत्य के आचरण द्वारा स्वयं सत्य बन जाना यही मेरे दर्शन-जैन-दर्शन या सत्य की उपलब्धि का मर्म है।।
मोक्ष-साधना में उपयोगी ज्ञेयों को तत्त्व कहा जाता है। वे यों हैं:जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर निर्जरा, बंध मोक्ष | उमास्वाति ने उनकी संख्या सात मानी है- पुण्य और पाप का उल्लेख नहीं किया हैं ३४ । संक्षेप दृष्टि से तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव ३५ | सात या नौ विभाग उन्हीं का विस्तार है । पुण्य और पाप बन्ध के अवांतर भेद हैं। उनकी पृथक् विवक्षा हो तो तत्त्व नौ और यदि उनकी स्वतंत्र विवक्षा न हो तो वे सात होते हैं।
पुण्य से लेकर मोक्ष तक के सात तत्त्व स्वतंत्र नहीं हैं। वे जीव और अजीव के अवस्था-विशेष हैं। पुण्य, पाप और बंध, ये पौद्गलिक है इसलिए अजीव के पर्याय हैं। पासव आत्मा की शुभ-अशुभ परिणति भी है और शुभ