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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
उसका कारण प्रमाद है। उससे मुक्ति पाने का उपाय अप्रमाद है "। कुशल दर्शन वह है, जो दुःख के निदानमूल कारण और उनका उपचार बताए " " |
दुःख स्वकर्मकृत है यह जानकर कृत, कारित और अनुमोदन रूप श्राव ( दुःख - उत्पत्ति के कारण मिथ्यात्व श्रवत, प्रमाद, कषाथ और योग ) का निरोध करें """
कुशल दार्शनिक वह
है जो बन्धन से मुक्त होने का उपाय खोजे " | दर्शन की धुरी आत्मा है। श्रात्मा है इसलिए धर्म का महत्त्व है । धर्म से बन्धन की मुक्ति मिलती है । बन्धन मुक्त दशा में ब्रह्म-भाव या ईश्वर-पद प्रगट होता है, किन्तु जब तक श्रात्मा की दृष्टि अन्तर्मुखी नहीं होती, इन्द्रिय की विषय-वासनाओं से सक्ति नहीं हटती । तबतक श्रात्म दर्शन नहीं होता । जिसका मन शब्द, रूप गन्ध, रस और स्पर्श से विरक्त हो जाता है; वही आत्मवित् ज्ञानवित् वेदवित्, धर्मवित् और ब्रह्मवित् होता है " " । परिवर्तन और विकास
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जीव और जीव-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल की समष्टि विश्व है। जीव और पुद्गल के संयोग से जो विविधता पैदा होती है, उसका नाम है सृष्टि ।
जीव और पुद्गल में दो प्रकार की अवस्थाएं मिलती हैं- स्वभाव और विभाव या विकार |
परिवर्तन का निमित्त काल बनता है। परिवर्तन का उपादान स्वयं द्रव्य होता है। धर्म, अधर्म और आकाश में स्वभाव परिवर्तन होता है। जीब और पुदगल में काल के निमित्त से ही जो परिवर्तन होता है वह स्वभावपरिवर्तन कहलाता है । जीव के निमित्त से पुद्गल में और पुद्गल के निमित्त से जीव में जो परिवर्तन होता है, उसे कहते हैं---विभाग-परिवर्तन | स्थूल 1 दृष्टि से हमें दो पदार्थ दीखते हैं- एक सजीब और दूसरा निर्जीव । दूसरे शब्दों में जीवत्-शरीर और निर्जीव शरीर या जीव मुक्त शरीर । श्रात्मा मूर्त है, इसलिए अदृश्य है। पुद्गल मूर्त होने के कारण दृश्य अवश्य हैं पर अचेतन हैं। आत्मा और पुद्गल दोनों के संयोग से जीवत् शरीर बनता है । पुद्गल के सहयोग के कारण जीव के शान को क्रियात्मक रूप मिलता है और