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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
मिथ्यात्व पुञ्ज को सम्यक् मिध्यात्व पुत्रम में संक्रान्त कर सकता है। पर सम्यक्त्व पुज को उसमें संक्रान्त नहीं कर सकता ।
व्यावहारिक सम्यग् दर्शन
सम्यग् दर्शन का सिद्धान्त सम्प्रदाय परक नहीं, आत्मपरक है। श्रात्मा अमुक मर्यादा तक मोह के परमाणुत्रों से विमुक्त हो जाती है, तीव्र कषाय ( अनन्तानुबन्धी चतुष्क ) रहित हो जाती है, तब उसमें श्रात्मोन्मुखता ( आत्म-दर्शन की प्रवृत्ति ) का भाव जागृत होता है । यथार्थ में वह ( श्रात्म1 दर्शन ) ही सम्यग दर्शन है। जिसे एक का सम्यग् दर्शन होता है, उसे सबका सम्यग् दर्शन होता है । श्रात्मदर्शी समदर्शी हो जाता है और इसलिए वह सम्यक दर्शी होता है। यह निश्चय-दृष्टि की बात है और यह आत्मानुमेय या स्वानुभवगम्य है । सम्यग् दर्शन का व्यावहारिक रूप तत्त्व श्रद्धान है | सम्यग् दर्शी का संकल्प
कषाय की मन्दता होते ही सत्य के प्रति रुचि तीव्र हो जाती है। उसकी गति तथ्य से तथ्य की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अबोधि से बोधि की
र, अमार्ग से मार्ग की ओर अज्ञान से शान की ओर प्रक्रिया से क्रिया की ओर, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर हो जाती है। उसका संकल्प ऊर्ध्व मुखी और आत्मलक्षी हो जाता है
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। व्यावहारिक सम्यग् दर्शन की स्वीकार - विधि
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लोक में चार मंगल हैं ( १ ) अरिहन्त ( २ ) सिद्ध ( ३ ) साधु (४) केवली. भाषित धर्म |
चार लोकोत्तम है- ( १ ) अरिहन्त (२) सिद्ध ( ३ ) साधु (४) केवलीभाषित धर्म ।
चार शरण्य है-मैं ( १ ) अरिहन्त की शरण लेता हूँ ( २ ) सिद्ध की शरण लेता हूँ । (३) साधु की शरण लेता हूँ (४) केवली भाषित धर्म की शरण लेता हूँ । जिसमें अरिहन्त देव, सुसाधु-गुरु और तत्त्व-धर्म की यथार्थ अद्धा है, उस सम्यक्त्व को मैं यावज्जीवन के लिए स्वीकार करता हूँ "। यह दर्शन -पुरुष के व्यावहारिक सम्यग् दर्शन के स्वीकार की विधि है "। इसमें उसके सत्य शंकर का ही स्थिरीकरण है।