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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
(२४५ सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के हेतु
सम्यग दर्शन की प्राप्ति दर्शन-मोह के परमाणुओं का विलय होने से होती है। इस दृष्टि का प्राति-हेत दर्शन मोह के परमाणुत्रों का बिलय है। यह (विलय) निसर्गजन्य और शान-जन्य दोनों प्रकार का होता है। भाचरण की शुद्धि होते-होते दर्शन-मोह के परमाणु शिथिल हो जाते हैं। बैसा होने पर जो तत्व-रुचि पैदा होती है, यथार्थ-दर्शन होता है, वह नैसर्गिक-सम्यग - दर्शन कहलाता है।
श्रवण, अध्ययन, वाचन या उपदेश से जो सत्य के प्रति आकर्षण होता है. वह आधिगमिक सम्यक् दर्शन है। सम्यक् दर्शन का मुख्य हेतु (दर्शन-मोह विलय ) दोनों में समान है। इनका भेद सिर्फ बाहरी प्रक्रिया से होता है। इनकी तुलना सहज प्रतिभा और अभ्यासलन्ध शान से की जा सकती है।
पंचविध सम्यग् दर्शन दोनों प्रकार का होता है । इस दृष्टि से वह दसविध हो जाता है:
(१-२) नैसर्गिक और प्राधिगमिक औपशमिक सम्यग् दर्शन (३-४) , , , क्षायोपरामिक , " (५-६) , , , क्षायिक " " (७८) , , , सास्वाद " "
(९-१०) , , , वेदक " " दसविध रचि
किसी भी वस्तु के म्बीकरण की पहली अबस्था रुचि है। रुचि से श्रुति होती है या श्रुति से रुचि-यह बड़ा जटिल प्रश्न है। शान, भुति, मनम, चिन्तन, निदिध्यासन-ये रुचि के कारण है, ऐसा माना गया है। दूसरी ओर यथार्थ रुचि के बिना यथार्थ ज्ञान नहीं होता है-यह भी माना गया है। इनमें पौर्वापर्य है या एक साथ उत्पन्न होते हैं ! इस विचार से यह मिला कि पहले रुचि होती है और फिर शान होता है। सत्य की रुचि होने के पश्चात ही उसकी जानकारी का प्रयत्न होता है । इस दृष्टि-बिन्दु से रुचि या सम्मक्त्व जो है, वह नैसर्गिक ही होता है। दर्शन-मोह के परमाणुत्रों का विलय होते ही वह अभिव्यक्त हो जाता है। निसर्ग और अधिगम का प्रपंच जो है, यह सिर्फ