________________
२४० ]
जैन दर्शन के मौलिक तस्व
और चरित्र की है। इस श्रयात्मक श्रेयोमार्ग ( मोक्ष-मार्ग ) की आराधना
करने वाला ही सर्वाराधक या मोक्ष-गामी है ।
सम्यक् संप्रयोग
ज्ञान, दर्शन और चरित्र का त्रिवेणी संगम प्राणीमात्र में होता है । पर 1 उससे साध्य सिद्ध नहीं बनता । साध्य-सिद्धि के लिए केवल त्रिवेणी का संगम ही पर्याप्त नहीं है। पर्याप्ति (पूर्णता ) का दूसरा पण ( शतं ) है यथार्थता 1 ये तीनों यथार्थ ( तथाभूत) और यथार्थ (अतथाभूत) दोनों प्रकार के होते हैं। श्रेयस् - साधना की समग्रता श्रयथार्थ ज्ञान, दर्शन, चरित्र से नहीं होती । इसलिए इनके पीछे सम्यक शब्द और जोड़ा गया । सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग् -- -चरित्र - मोक्ष मार्ग हैं | पौर्वापर्य
साधना और पूर्णता ( स्वरूप - विकास के उत्कर्ष ) की दृष्टि से सम्यग्दर्शन का स्थान पहला है, सम्यग् - ज्ञान का दूसरा और सम्यग् चरित्र का तीसरा है । साधना-क्रम
दर्शन के बिना ज्ञान, शान के बिना चरित्र, चरित्र के बिना कर्म-मोक्ष और कर्म-मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता |
स्वरूप-विकास-क्रम
सम्यग्दर्शन का पूर्ण विकास 'चतुर्थ गुण-स्थान' ( श्ररोह कम की पहली भूमिका) में भी हो सकता है। अगर यहाँ न हो तो बारहवें गुणस्थान ( आरोह क्रम की आठवीं भूमिका - क्षीणमोह ) की प्राप्ति से पहले तो हो ही जाता है।
सम्यग् ज्ञान का पूर्ण विकास तेरहवें और सम्यक् चरित्र का पूर्ण विकास चौदहवें गुणस्थान में होता है। ये तीनों पूर्ण होते हैं और साध्य मिल जाता है-- श्रात्मा कर्ममुक्त हो परमात्मा बन जाता है।
सम्यक्त्व
एक चतुष्मान् वह होता है, जो रूप और संस्थान को श्रेय दृष्टि से बेलता है। दूसरा चक्षुष्मान् नह होता है, जो वस्तु की शेम, हेय और उपादेव