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________________ २१२] जैन दर्शन के मौलिक तस्व धर्म अधर्म समूचे लोक में व्याप्त है। श्राकाश लोक अलोक दोनों में व्याप्त है। काल, पुद्गल और जीव--- ये तीन द्रव्य अनेक द्रव्य है व्यक्ति रूप से अनन्त हैं । पुद्गल द्रव्य सांख्य-सम्मत प्रकृति की तरह एक या व्यापक नहीं किन्तु अनन्त हैं, अनन्त परमाणु और अनन्त स्कन्ध हैं ११३ 1 जीवात्मा भी एक और व्यापक नहीं, अनन्त हैं । काल के भी समय अनन्त हैं। ११४ । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में द्रव्यों की संख्या के दो ही विकल्प हैंएक या अनन्त ११५ । कई ग्रन्थकारों ने काल के असंख्य परमाणु माने हैं पर वह युक्त नहीं । यदि उन कालापुत्रों को स्वतन्त्र द्रव्य माने तब तो द्रव्यसंख्या में विरोध आता है और यदि उन्हें एक समुदय के रूप में माने तो अस्तिकाय की संख्या में विरोध आता है। इसलिए कालाणु असंख्य हैं और वे समूचे लोकाकाश में फैले हुए हैं। यह बात किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होती । सादृश्य-वैसादृश्य अपेक्षा धर्म, धर्म, विशेष गुण की अपेक्षा पांचों द्रव्य ---धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव विसदृश हैं। सामान्य गुण की अपेक्षा वे सदृश भी हैं। व्यापक गुण की अपेक्षा धर्म, अधर्म, श्राकाश सदृश हैं। श्रमूर्त्तत्व की श्राकाश और जीव सहश है । चैतन्य की अपेक्षा धर्म, धर्म, श्राकाश और पुद्गल सदृश हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व प्रदेशत्व और गुरु-लघुत्व की अपेक्षा सभी द्रव्य सदृश हैं। असंख्य द्वीप समुद्र और मनुष्य-क्षेत्र जैन- दृष्टि के अनुसार भूवलय ( भूगोल ) का स्वरूप इस प्रकार हैतिरछे लोक में असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं। उनमें मनुष्यों की आबादी सिर्फ ढाई द्वीप [ जम्बू, धातकी और अर्ध पुष्कर ] में ही है। इनके बीच में लवण और कालोदधि—ये दो समुद्र भी आ जाते हैं, बाकी के द्वीप समुद्रों में न तो मनुष्य पैदा होते हैं और न सूर्य-चन्द्र की गति होती है, इसलिए ये ढाई द्वीप और दो समुद्र शेष द्वीप समुद्री से विभक्त हो जाते हैं। इनको 'मनुष्य क्षेत्र' या 'समय क्षेत्र' कहा जाता है। शेष इनसे व्यतिरिक्त हैं। उनमें सूर्य-चन्द्र हैं सही, पर वे चलते नहीं, स्थिर हैं। जहाँ सूर्य है वहाँ सूर्य और जहाँ चन्द्रमा है
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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