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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
कभी-कभी परिस्थितिवश स्निग्ध परमाणु समांश रूक्ष परमाणुओं को और रूक्ष परमाणु समांश स्निग्ध परमाणुत्रों को भी अपने-अपने रूप में परिणत कर लेते है १०८१
दिगम्बर-परम्परा को यह समांश- परिणति मान्य नहीं है १०९ । छाया - अपारदर्शक और पारदर्शक -- दोनों प्रकार की होती है। आतप - उष्ण प्रकाश या ताप किरण ।
उद्योत - शीत प्रकाश या ताप किरण ।
अग्नि-स्वयं गरम होती है और उसकी प्रभा भी गरम होती है । श्रातप-स्वयं ठण्डा और उसकी प्रभा गरम होती है ।
उद्योत - खयं ठण्डा और उसकी प्रभा भी ठण्डी होती है।
प्रतिविम्ब
गौतम --- भगवन् ! काच में देखने वाला व्यक्ति क्या काच को देखता है ? अपने शरीर को देखता है ? अथवा अपने प्रतिबिम्ब को देखता है ? वह क्या देखता है ?
भगवान् गौतम ! काच में देखने वाला व्यक्ति कांच को नहीं देखता - वह स्पष्ट है। अपने शरीर को भी नहीं देखता - वह उसमें नहीं है । वह अपने शरीर का प्रतिबिम्ब देखता है ११० । प्रतिबिम्ब-प्रक्रिया औरउसका दर्शन
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पौद्गलिक वस्तुएं दो प्रकार की होती हैं । (१) सूक्ष्म (२) स्थूल | इन्द्रिय- गोचर होने वाली सभी वस्तुएं स्थूल होती हैं। स्थूल वस्तुएं चयापचय धर्मक ( घट-बढ़ जाने वाली ) होती है। इनमें से रश्मियां निकलती हैं-वस्तु आकार के अनुरूप छाया-पुद्गल निकलते हैं। और वे भास्कर या अभास्कर वस्तु में प्रतिविम्बित हो जाते हैं १११ । भास्कर वस्तु में पड़ने वाली earer दिन में श्याम और रात को काली होती है। भास्कर वस्तुओं में पड़ने वाली छाया वस्तु के वर्णानुरूप होती है ११२ । अवयव संक्रान्त होते हैं वे प्रकाश के द्वारा वहाँ दृष्टिगत होते हैं । इसलिए श्रद्रष्टा व्यक्ति आदर्श में न आदर्श देखता है, न अपना शरीर किन्तु अपना प्रतिबिम्ब देखता है ।
आदर्श में जो शरीर के