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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं (१९३ . निमित्त की अपेक्षा से नहीं होती। केवल ऊर्ध्व-प्रचय घाला द्रव्य अस्तिकाय नहीं होता। काल के विभाग
काल चार प्रकार का होता है-प्रमाण-काल, यथायु निवृत्ति-काल, मरणकाल और श्रद्धा-काल २१
काल के द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं, इसलिए उसे प्रमाण-काल कहा जाता है।
जीवन और मृत्यु भी काल सापेक्ष हैं, इसलिए जीवन के अवस्थान को यथायु-निवृत्तिकाल और उसके अन्त को मरण काल कहा जाता है।
सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्ध रखने वाला श्रद्धा-काल कहलाता है। काल का प्रधान रूप श्रद्धा-काल ही है। शेष तीनों इसीके विशिष्ट रूप हैं । श्रद्धा-काल व्यावहारिक है। वह मनुष्य-लोक में ही होता है । इसीलिए मनुष्य लोक को 'समय-क्षेत्र' कहा जाता है। निश्चय-काल जीवअजीव का पर्याय है, वह लोकालोक व्यापी है। उसके विभाग नहीं होते। समय से लेकर पुद्गल-परावर्त तक के जितने विभाग हैं, वे सब अदा-काल के हैं। इसका सर्व सूक्ष्म भाग समय कहलाता है। यह अविभाज्य होता है। इसकी प्ररूपणा कमल पत्र भेद और वस्त्र-विदारण के द्वारा की जाती है।
(क ) एक दूसरे से मटे हुए कमल के सौ पत्तों को कोई बलवान् व्यक्ति सूई से छेद देता है, तब ऐमा ही लगता है कि सब पते साथ ही छिद गए, किन्तु यह होता नहीं। जिस समय पहला पत्ता छिदा, उस समय दूसरा नहीं। इसी प्रकार सब का छेदन क्रमशः होता है।
(ख) एक कलाकुशल युवा और बलिष्ठ जुलाहा जीर्ण-शीर्ण वस्त्र या साड़ी को इतनी शीघ्रता से फाड़ डालता है कि दर्शक को ऐसा लगता है मानो सारा वस्त्र एक साथ फाड़ डाला, किन्तु ऐसा होता नहीं। वस्त्र अनेक तन्तुओं से बनता है। जब तक ऊपर के तन्तु नहीं फटते तब तक नीचे के तन्तु नहीं फट सकते। अतः यह निश्चित है कि वस्त्र फटने में काल-भेद होता है।