________________
जैन दर्शन के मौलिक तस्य .. (१११ विज्ञान की दृष्टि में आकाश और काल
आइन्स्टीन के अनुसार-आकाश और काल कोई स्वतन्त्र सथ्य नहीं है। ये द्रव्य या पदार्थ के धर्म मात्र है।
किसी भी वस्तु का अस्तित्व पहले तीन दिशात्रों-लम्बाई, चौड़ाई और गहराई या ऊंचाई में माना जाता था। आइन्स्टीन ने वस्तु का अस्तित्व चार दिशाओं में माना।
वस्तु का रेखागणित (ऊंचाई, लम्बाई, चौड़ाई ) में प्रसार आकाश है और उसका क्रमानुगत प्रसार काल है। काल और आकाश दो भिन्न तभ्य नहीं हैं।
ज्यों-ज्यों काल बीतता है त्यों-त्यों वह लम्बा होता जा रहा है। काल आकाश सापेक्ष है। काल की लम्बाई के साथ-साथ आकाश (विश्व के आयतन ) का भी प्रसार हो रहा है। इस प्रकार काल और आकाश दोनों वस्तु धर्म है । अस्तिकाय और काल ___ धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव-ये पांच अस्तिकाय है। ये तिर्यक-प्रचय-स्कन्ध रूप में हैं, इसलिए उन्हें अस्तिकाय कहा जाता है। धर्म, अधर्म, आकाश और एक जीव एक स्कन्ध है। इनके देश या प्रदेश में विभाग काल्पनिक हैं। ये अविभागी है। पुदगल विभागी है। उसके स्कन्ध
और परमाणु-ये दो मुख्य विभाग हैं । परमाणु उसका अविभाज्य भाग है। दो परमाणु मिलते है-द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है। जितने परमाणु मिलते हैं उतने प्रदेशों का स्कन्ध बन जाता है। प्रदेश का अर्थ है पदार्थ का परमाणु जितमा अवयव या माग। धर्म, अधर्म, आकाश और जीव के स्कन्धों को परमाणु जितने विभाग किए जाए तो आकाश के अनन्त और शेष तीनों के असंख्य होते हैं। इसलिए आकाश को अनन्त प्रदेशी और शेष तीनों को असंख्य प्रदेशी कहा है। देश बुद्धि-कल्पित होता है, उसका कोई निश्चित परिमाण नहीं बताया जा सकता।