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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
वैज्ञानिकों
कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शक्ति का - द्रव्य का अभाव है, जो गति में सहायक होता है।” द्वारा सम्मत ईथर ( Fther ) गति तत्त्व का ही दूसरा नाम है । जहाँ वैज्ञानिक अध्यापक छात्रों को इसका अर्थ समझाते हैं, वहाँ ऐसा लगता है, मानो कोई जैन गुरु शिष्यों के सामने धर्म-द्रव्य की व्याख्या कर रहा हो । हवा से रिक्त नालिका में शब्द की गति होने में यह अभौतिक ईथर ही सहायक बनता है। भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए बताया कि जितने भी चल भाव है-सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्पन्दन मात्र हैं, वे सब धर्म की सहायता से प्रवृत्त होते हैं, गति-शब्द केवल सांकेतिक है ३१ । गति और स्थिति दोनों सापेक्ष हैं। एक के अस्तित्व से दूसरे का अस्तित्व अत्यन्त अपेक्षित है।
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धर्म, धर्म की तार्किक मीमांसा करने से पूर्व इनका स्वरूप समझ लेना अनुपयुक्त नहीं होगा :--
धर्म
धर्म
द्रव्य से
३२
एक और
व्यापक
""
क्षेत्र से
33
लोक
प्रमाण
"
काल से
अनादि
अनन्त
""
भाव से
श्रमूर्त्त
"
गुण से
गति
सहायक
स्थिति
सहायक
धर्म अधर्म की यौक्तिक अपेक्षा
धर्म और धर्म को मानने के लिए हमारे सामने मुख्यतया दो यौक्तिक दृष्टियां हैं- ( १ ) गतिस्थितिनिमित्तक द्रव्य और (२) लोक, अलोक की विभाजक शक्ति | प्रत्येक कार्य के लिए उपादान और निमित्त- इन दो कारणों की आवश्यकता होती है। विश्व में जीव और पुद्गल दो द्रव्य गतिशील है । गति के उपादान कारण तो वे दोनों स्वयं है। निमित्त कारण किसे माने ! मह प्रश्न सामने आता है, तब हमें ऐसे द्रव्यों की आवश्यकता होती है, जो