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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
भगवान्-रोह ! मुर्गी किससे पैदा हुई ? रोह-मन्ते । अण्डे से। भगवान्-इस प्रकार अण्डा और मुगी पहले भी हैं और पीछे भी है।
दोनों शाश्वत भाव हैं। इनमें क्रम नही है'। लोक अलोक
जहाँ हम रह रहे हैं वह क्या है ? यह जिज्ञासा सहज ही हो पाती है। उत्तर होता है-लोक है। लोक अलोक के बिना नहीं होता, इसलिए अलोक भी है। अलोक से हमारा कोई लगाव नहीं। वह सिर्फ आकाश ही आकाश है । इसके अतिरिक्त वहाँ कुछ भी नहीं। हमारी क्रिया की अभिव्यक्ति, गति, स्थिति, परिणति पदार्थ-सापेक्ष है। ये वहीं होती हैं, जहाँ आकाश के अतिरिक्त अन्य पदार्थ हैं। ___ धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-इन छहों द्रव्यों की सहस्थिति है, वह लोक है । पंचास्तिकायों का जो सहावस्थान है, वह लोक है । संपेक्ष में जीव और अजीव की सह-स्थिति है, वह लोक है। लोक-अलोक का विभाजक तत्त्व
लोक-अलोक का स्वरूप समझने के बाद हमें उनके विभाजक तत्त्व की समीक्षा करनी होगी। उनका विभाग शाश्वत है। इसलिए विभाजक तत्त्व भी शाश्वत होना चाहिए। कृत्रिम बस्तु से शाश्वतिक वस्तु का विभाजन नहीं होता। शाश्वतिक पदार्थ इन छहों द्रव्यों के अतिरिक्त और है नहीं।
आकाश स्वयं विभज्यमान है, इसलिए वह विभाजन का हेतु नहीं बन सकता। काल परिणमन का हेतु है । उसमें आकाश को दिगरूप करने की क्षमता नहीं। व्यावहारिक काल मनुष्य-लोक के सिवाय अन्य लोकों में नहीं होता। नैश्चयिक काल लोक-अलोक दोनों में मिलता है। काल वास्तविक तत्त्व नहीं । व्यावहारिक काल सूर्य और चन्द्र की गति क्रिया से होने वाला समय विभाग है। नैश्चयिक काल जीव और अजीव की पर्याय मात्र है । जीव
और पुदगल गतिशील और मध्यम परिणाम वाले तत्त्व है। लोक-अलोक की सीमा-निर्धारण के लिए कोई स्थिर और व्यापक तत्व होना चाहिए। इसलिए ये भी उसके लिए योग्य नहीं बनते। अब दो अन्य शेष य जाते हैं