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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
जातिः' का सिद्धान्त स्थापित किया। दूसरी ने जाति को अतात्त्विक माना और 'कर्मणा जाति: ' यह पक्ष सामने रक्खा। इस जन जागरण के कर्णधार ये श्रमण भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध । इन्होंने जातिवाद के विरुद्ध बड़ी क्रान्ति की और इस आन्दोलन को बहुत सजीव और व्यापक बनाया । ब्राह्मण परम्परा में जहाँ "ब्रह्मा" के मुंह से जन्मने वाले ब्राह्मण, बाहु से जन्मने वाले क्षत्रीय, ऊरु से जन्मने वाले वैश्य, पैरों से जन्मने वाले शूद्र और अन्त में पैदा होने वाले अन्त्यज ४ ” - यह व्यवस्था थी, वहाँ श्रमण- परम्परा
-- " ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने - अपने कर्म ( श्राचरण ) या वृत्ति के अनुसार होते है ४ ७” यह श्रावाज बुलन्द की । श्रमण परम्परा की क्रान्ति से जातिवाद की श्रृङ्खलाएं शिथिल अवश्य हुई पर उनका अस्तित्व नहीं मिटा । फिर भी यह मानना होगा कि इस क्रान्ति की ब्राह्मण-परम्परा पर भी गहरी छाप पड़ी । " चाण्डाल और मच्छीमार के घर में पैदा होने वाले व्यक्ति भी तपस्या से ब्राह्मण बन गए, इसलिए जाति कोई तात्त्विक वस्तु नहीं है। यह विचार इसका साक्षी है ।
जातिवाद की तात्त्विकता ने मनुष्यों में जो हीनता के भाव पैदा किये, वे अन्त में हुआछूत तक पहुँच गए। इसके लिए राजनैतिक क्षेत्र में महात्मा गांधी ने भी काफी आन्दोलन किया। उसके कारण श्राज भी यह प्रश्न ताजा और सामयिक बन रहा है। इसलिए जाति क्या है ? वह तात्त्विक है या नहीं ? कौन-सी जाति श्रेष्ठ है ? आदि श्रादि प्रश्नों पर भी विचार करना . आवश्यक है ।
वह वर्ग या समूह जाति है, जिसमें एक ऐसी समान शृङ्खला हो, जो दूसरों में न मिले। मनुष्य एक जाति है। मनुष्य मनुष्य में समानता है और वह अन्य प्राणियों से विलक्षण भी है। मनुष्य जाति बहुत बड़ी है, बहुत बड़े भूवलय पर फैली हुई है। विभिन्न जलवायु और प्रकृति से उसका सम्पर्क है। इससे उसमें भेद होना भी अस्वाभाविक नहीं । किन्तु वह मेद औपाधिक हो सकता है, मौलिक नहीं। एक भारतीय है, दूसरा अमेरिकन है, तीसरा रसियन – इनमें प्रादेशिक भेद है पर 'वे मनुष्य है' इसमें क्या अन्तर है; कुछ भी नहीं। इसी प्रकार जलवायु के अन्तर से कोई गोरा है, कोई काला । भांषा
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