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जातिवाद
मंतीति थंमिज्जा, तं जातिमरण वा कुलमएण वा ।
( स्था० १०१७-१०)
जो व्यक्ति जाति और कुल का गर्व करता है, अपने आपको सबसे ऊंचा
मानता है, वह स्तब्ध हो जाता है।
लिंगं देहाभितं दृष्टं, देह एवात्मनो भवः ।
न मुच्यते भवात्तस्मात्, ते ये लिंगकृताग्रहाः ॥ जातिर्देहाश्रिता दृष्टा, देह एवात्मनो भवः । न मुच्यते भवात्तस्मात्, ते ये जातिकृतामहाः ||
( समाधि० ८७-८८)
जाति सामाजिक व्यवस्था है । वह तात्त्विक वस्तु नहीं है। जो जाति का बाद लिए हुए है, वह मुक्त नहीं हो सकता ।
शूद्र और ब्राह्मण में रंग और आकृति का मेद नहीं जान पड़ता। दोनों की गर्भाधान विधि और जन्म-पद्धति भी एक है। गाय और भैंस में जैसे जाति-कृत मेद' है, वैसे शूद्र और ब्राह्मण में नहीं है। बीच जो जाति-कृत भेद है, वह परिकल्पित है । मनुष्य जाति की एकता
इसलिए मनुष्य-मनुष्य के
मनुष्य जाति एक है। भगवान् ऋषभदेव राजा नहीं बने, तब तक वह एक ही रही। वे राजा बने, तब वह दो भागों में बंट गई जो व्यक्ति राजाभित बने, वे क्षत्रिय कहलाए और शेष शुद्र /
।
मनुष्य जाति के तीन
कर्म-क्षेत्र की ओर मनुष्य जाति की प्रगति हो रही थी। अग्नि की उत्पति ने उसमें एक नया परिछेद जोड़ दिया । अनि ने वैश्य वर्ग को जन्म दिया। लोहार, शिल्पी और विनिमय की दिशा खुली भाग बन गए। भगवान् साधु बने । भरत चक्रवर्ती बना। मण्डल स्थापित किया । उसके सदस्य ब्राह्मण कहलाए। माग हो गए ।
उसने स्वाध्यायशील
मनुष्य जाति के बार