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________________ १४६) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व काल-निर्णय उस काल और उस समय की बात है-भगवान् राजगृह के (ईशानकोणवती) गुणशीलक नाम के चैत्य (व्यन्तरायतन) में समवस्त हुए। परिषद् एकत्रित हुई। भगवान् ने धर्म-देशना की। परिषद् चली गई। ' उस समय भगवान के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति गौतम को श्रद्धा, संशय या कुतूहल उत्पन्न हुआ। वे भगवान् के पास पाए। वन्दना-नमस्कार कर न अति दूर और न अति निकट बैठकर विनयपूर्वक बोले-भगवन् ! नैरयिक जीव कितने प्रकार के पुद्गलों का मेद और उदीरणा करते हैं ? भगवान् ने कहा-गौतम ! नैरयिक जीव कर्म-द्रव्य-वर्गणा ( कर्म-पुद्गल सजातीय-समूह ) की अपेक्षा अणु और बाह्य (सूक्ष्म और स्थूल ) इन दो प्रकार के पुद्गलों का भेद और उदीरणा करते हैं। इसी प्रकार भेव, चय, उपचय, वेदना, निर्जरा, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्ति और निकाचन करते हैं १०१ ___ गैतम-भगवन् ! नैरयिक जीव तैजस और कार्मण (कर्म समूह ) पुद्गलों का ग्रहण अतीत काल में करते हैं ? प्रत्युत्पन्न काल में ? या अनागत (भविष्य ) काल में? भगवान् गौतम ! नैरयिक तैजस और कार्मण पुद्गलों का ग्रहण अतीत काल में नहीं करते, वर्तमान काल में करते हैं, अनागत काल में भी नहीं करते। गौतम-भगवन् ! नैरयिक जीव अतीत में ग्रहण किए हुए तैजस और कार्मण पुद्गलों की उदीरणा करते हैं। प्रत्युत्पन्न में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की ? या ग्रहण समय पुरस्कृत (वर्तमान से अगले समय में ग्रहण किये जाने वाले ) पुद्गलों की? __ भगवान् गौतम ! वे अतीत काल में ग्रहण किए हुए पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, न प्रत्युत्पन्न काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की उदीरणा करते हैं और न ग्रहण समय पुरस्कृत पुद्गलों की भी। इसी प्रकार मेदना और निर्जरा भी अतीत काल में गृहीत पुद्गलों की होती है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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