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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्व ( १३९: विकर्षण दोनों होते हैं। श्वेताम्बर आगमों में इसका पूर्ण समर्थन मिलता है । गौतम ने पूछा- भगवन् ! भ्रमण को वंदन करने से क्या लाभ होता है ? भगवान् गौतम ! भ्रमण को वंदन करने वाला नीच गोत्र-कर्म को खपाता है और उच्च-गोत्र-कर्म का बन्ध करता है। यहाँ एक शुभ प्रवृत्ति से पाप कर्म का क्षय और पुण्य कर्म का बन्ध-इन दोनों कार्यों की निष्पत्ति मानी गई है तर्क दृष्टि से भी यह मान्यता अधिक संगत लगती है । धर्म और पुण्य । नहीं होता। तीसरी बात धर्म जैन दर्शन में धर्म और पुण्य - ये दो पृथक् तत्त्व हैं। शाब्दिक दृष्टि से पुण्य शब्द धर्म के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, किन्तु तत्त्व-मीमांसा में ये कभी एक नहीं होते ७१| धर्म श्रात्मा की राग-द्वेषहीन परिणति है ( शुभ परिणाम है ) और पुण्य शुभकर्ममय पुद्गल है ७२ | दूसरे शब्दों में धर्म आत्मा की पर्याय है और पुण्य जीव ( पुद्गल ) की पर्याय है७४ दूसरी बात धर्म ( निर्जरारूप, यहाँ सम्बर की अपेक्षा नहीं है ) सत्क्रिया है और पुण्य उसका फल है ० ५; कारण कि सत्प्रवृत्ति के बिना पुण्य श्रात्म शुद्धि - आत्म- मुक्ति का साधन है, और पुण्य आत्मा के लिए बन्धन है७७ । अधर्म और पाप की भी यही स्थिति है। ये दोनों धर्म और पुण्य के ठीक प्रतिपक्षी हैं। जैसे—सत्प्रवृत्तिरूप धर्म के बिना पुण्य की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही अधर्म के बिना पाप की भी उत्पत्ति नहीं होती | पुण्य-पाप फल है, जीव की अच्छी या बुरी प्रवृत्ति से उसके साथ चिपटने वाले पुद्गल हैं तथा ये दोनों धर्म और अधर्म के लक्षण हैं- -गमक हैं७९ । लक्षण लक्ष्य के बिना केला पैदा नहीं होता। जीव की क्रिया दो भागों में विभक्त होती है - धर्म अधर्म, सत् अथवा असत् । अधर्म से आत्मा के संस्कार विकृत होते हैं, पाप का बन्ध होता है । धर्म से श्रात्म-शुद्धि होती है और उसके साथ-साथ पुण्य का बन्ध होता है । इसलिए इनकी उत्पत्ति स्वतन्त्र नहीं हो सकती । पुण्य-पाप कर्म का ग्रहण होना या न होना श्रात्मा के अध्यTere परिणाम पर निर्भर हैं" । शुभयोग तपस्या-धर्म है और वही शुभयोग पुण्य का श्रासव है | अनुकम्पा, क्षमा, सराग-संयम, अरूप-परिग्रह, योग V
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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