________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्व
t se
)
(१) तिर्यञ्च ( २ ) मनुष्य । (मनुष्य के मल, मूत्र, लहू श्रादि अशुचि स्थान में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय जीव सम्मूच्छिम मनुष्य कहलाते हैं १८ तिर्यञ्च जाति की मुख्य दशाएं तीन हैं :( १ ) जलचर - मत्स्य आदि ।
(२) स्थलचर - गाय, भैंस आदि ।
(क) उरपरिसृप - रेंगने वाले प्राणी-सांप आदि ।
( ख ) भुजपरिसृप - भुजा के बल पर चलने वाले प्राणी - नेवला आदि इसीकी उपशाखाएं हैं।
(३) खेचर - पक्षी ।
सम्मूमि जीवों का जाति-विभाग गर्भ-व्युत्क्रान्त जीवों के जाति-विभाग जैसा सुस्पष्ट और संबद्ध नहीं होता ।
प्रकृति परिवर्तन और अवयवों की न्यूनाधिकता के आधार पर जातिविकास की जो कल्पना है, वह औपचारिक है, तात्त्विक नहीं। सेव के वृक्ष की लगभग २ हजार जातियां मानी जाती हैं। भिन्न-भिन्न देश की मिट्टी में बोया हुआ बीज भिन्न-भिन्न प्रकार के पौधों के रूप में परिणत होता है । उनके फूलों और फलों में वर्ण, गन्ध, रस आदि का अन्तर भी आ जाता है । 'कलम' के द्वारा भी वृक्षों में आकस्मिक परिवर्तन किया जाता है। इसी प्रकार तिर्यञ्च और मनुष्य के शरीर पर भी विभिन्न परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता हैं। शीत प्रधान देश में मनुष्य का रंग श्वेत होता है, उष्ण-प्रधान देश में श्याम | यह परिवर्तन मौलिक नहीं है। वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा औपचारिक परिवर्तन के उदाहरण प्रस्तृत किये गए हैं। मौलिक परिवर्तन प्रयोगसिद्ध नहीं हैं । इसलिए जातिगत औपचारिक परिवर्तन के आधार पर क्रम विकास की धारणा अधिक मूल्यवान् नहीं बन सकती ।
शारीरिक परिवर्तन का ह्रास या उल्टा क्रम
पारिवारिक वातावरण या बाहरी स्थितियों के कारण जैसे विकास या प्रगति होती है, वैसे ही उसके बदलने पर ह्रास या पूर्व गति भी होती है ।
इस दिशा में सबसे आश्चर्यजनक प्रयोग है—क्यूनिख की जन्तुशाला के डाइरेक्टर श्री हिंज हेक के, जिन्होंने विकासबाद की गाड़ी ही आगे से पीछे