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________________ तिरुकुरल (तमिलवेद): एक जैन रचना [अणुव्रतपरामर्शक मुनिश्री नगराज ) भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने कहा -"यदि कोई चाहे कि भारत के समस्त साहित्य का मुझे पूर्ण रूप से शान हो जाए तो तिरुकुरल को बिना पढ़े उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता।” इस महत्त्वपूर्ण अन्य को शेव, वैष्णव, बौद्ध आदि सभी अपना धर्मग्रन्थ मानने को समुत्सुक है। लगभग दो सहस्र वर्ष पूर्व लिखा गया वह अन्य तमिलवेद अर्थात् तिरुकुरल है। तमिल जाति का यह सर्वमान्य और सर्वोपरि ग्रन्थ है। इसीलिए उसका नाम 'तमिलवेद' पड़ा है। प्रचलित धारणा के अनुसार इस ग्रन्थ के रचयिता तिरुवल्लुबर अर्थात् सन्त वल्लवर हैं। यह एक काव्यात्मक नीतिग्रन्थ है। बहुत बड़ा नहीं है। यह ग्रन्य कुरल नामक छन्द में लिखा गया है। कुरल छन्द एक अनुष्टुप श्लोक से भी छोटा होता है। इस ग्रंथ में धर्म, अर्थ और काम-ये तीन मूलभूत आधार माने गए हैं। विभिन्न विषयपरक १३३ अध्याय हैं और एक-एक अध्याय में दश-दश कुरल छन्द हैं। कुल मिलाकर १३३० कुरल होते हैं, जो पंक्तियों में २६६० है। रचना सौष्ठव तमिल के विद्वानों द्वारा निरुपम माना गया है। हिन्दी में गद्य अनुवाद उपलब्ध है, पर पद्य का गद्यात्मक या पद्यात्मक अनुवाद एक भावबोध से अधिक कुछ नहीं बताया करता। कालिदास ने संस्कृत शब्दावली में जिस भाव को अपने कलात्मक कवित्व में बांधा है और जो आनन्द उससे संस्कृत काव्यरसिक उठा सकता है, वह कलात्मकता उसके हिन्दी अनुवाद में थोड़े ही आ सकती है ? वह अनुवाद भी यदि संस्कृत पद्य का हिन्दी गद्य में हों तो काव्यात्मक आनन्द का लेश भी कहाँ बच जाएगा? तिरुकुरल के काव्यात्मक आनन्द के विषय में तमिल नहीं जानने वाले हम अननुभूत और अनभिज्ञ ही रह सकते हैं ; तथापि कवि की उक्ति-चारता आदि कुछ विशेषताओं को हम तथारूप अनुवाद से भी पकड़ सकते हैं। काव्य की भाषा तीखी ओर हृदयस्पशी है। धर्म की उपादेयता के विषय में कहा गया है-"मुझसे मत पूछो कि धर्म से क्या लाभ है ? बस एक बार पालको उठानेवाले कहारों की ओर देख लो और फिर उस आदमी को देखो जो उसमें सवार है।" १-धर्म प्रकरण-७
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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