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प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग जैन साधना में प्रतिक्रमण का प्रमुख स्थान है। इसका अर्थ है जो आत्मा बाह्य विषयों की ओर झुकी हुई है उसे पुनः अन्तर्मुखी बनाना । प्रति का अर्थ है वापिस और क्रमण का अर्थ है जाना। साधु प्रतिदिन रात्रि के अन्त में रायसी और दिन के अन्त में देवसिक प्रतिक्रमण करता है उसमें जाने-अनजाने लगे हुये दोषों के लिये चिन्तन करता है । प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें दो प्रकार के कायोत्सर्ग किये जाते हैं। पहले में २४ तीर्थकरों का चिन्तन किया जाता है और दूसरे में अंगीकृत व्रतों और संभावित अतिचारों का । प्रतिक्रमण के पाँच मेद है :
१ - देवसिक - दिन के अन्त में किया जाने बाला । २ - रायसी - रात्रि के अन्त में किया जाने वाला ।
३ -- पाक्षिक -- १५ दिनों के अन्त में किया जाने वाला ।
४ - चातुर्मासिक चार महीनों के अन्त में किया जाने वाला ।
५ सांवत्सरिक - वर्ष के अन्त में किया जाने वाला ।
इस आधार पर कायोत्सर्ग के भी पाँच भेद किये जाते हैं।
साधु तथा भावक दोनों के लिये नित्य कृत्य के रूप में षडावश्यक का विधान है। इसका अर्थ है प्रतिदिन करने योग्य छः आवश्यक बातें 1 वे प्रकार हैं :
इस
(१) सामायिक, (२) चतुर्विंशतिस्तव, ( ३ ) वंदना, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग और ( ६ ) प्रत्याख्यान | इनमें कायोत्सर्ग का ५ वां स्थान है और वह प्रतिक्रमण के पश्चात् किया जाता है । इस कायोत्सर्ग में 'लोगस्स उज्जोयगरे' नामक चौबीस तीर्थकरों की स्तुति की जाती है। स्तुति में सात गाथायें हैं, जिनके २८ चरण होते हैं । प्रत्येक चरण का ध्यान एक श्वास में किया जाता है । उदाहरण के रूप में प्रथम सांस लेते समय मन ही मन 'लोगस्स उज्जोयगरे' कहा जायगा । छोड़ते समय 'धम्म तित्थयरेजिणे', दूसरा सांस लेते समय 'अरिहंते कि इस्सं,' और छोड़ते समय 'चउवीसं पि जिणवरा' कहा जायगा। सातवीं गाथा का प्रथम चरण 'चन्देसु णिम्मलयरा' है। किसीकिसी का यह कथन है कि उसी के साथ कायोत्सर्ग पूरा कर देना चाहिये । यह पच्चीस चरण है ।