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[ ७१ ] ७-निषण्ण उत्सत शारीरिक स्थिति लेट कर
मानसिक चिन्तन धर्म शुक्ल ध्यान ८-निषण्ण , शारीरिक स्थिति लेट कर
मानमिक चिन्तन चिन्तन शून्य दशा ६-निषण्ण निषण्ण शारीरिक स्थिति लेट कर
मानसिक चिन्तन आत्त-रौद्र ध्यान अमितगति ने कायोत्सर्ग के चार भेद बताये हैं। उन्होंने शारीरिक अवस्थायें दो ही मानी हैं। उत्यित अर्थात् खड़े होकर और उपविष्ट अर्थात् बैठ कर । लेटने की अवस्था नहीं बताई। इसी प्रकार मानसिक स्थिति भी दो प्रकार की है। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के रूप में उत्थित तथा आत्तध्यान और रौद्रध्यान के रूप में उपविष्ट । अमितगति ने शून्य अवस्था को स्वीकार नहीं किया।
लक्ष्य की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो भेद हैं :
१. चेष्टाकायोत्सर्ग-यह दोष-विशुद्धि के लिये किया जाता है। जब साधु शौच, मिक्षा आदि के लिये बाहर जाता है तो लौट कर इसे करता है। इसी प्रकार निद्रा त्याग के पश्चात् भी इसे किया जाता है। इसका लक्ष्य है विभिन्न प्रवृत्तियाँ करते समय अनजान में लगे दोषों से विशुद्धि।
२. अभिभवकायोत्सर्ग- यह दो अवस्थाओं में किया जाता है। पहली अवस्था दीर्घकालीन आत्म-चिन्तन की है। साधक आत्म-शुद्धि के लिये दीर्घ काल तक मन को एकाग्र करने का अभ्यास करता है। अनेक श्रमण इसे यावज्जीवन के लिये भी अंगीकार किया करते थे। उसका दूसरा रूप है किसी प्रकार का उपसर्ग या संकट आने पर कायोत्सर्ग करना। जैन साहित्य में विशाल संख्या में ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि राज-विप्लव, अग्निकाण्ड, दुर्भिक्ष, बाढ़ आदि के आने पर श्रमणों ने कायोत्सर्ग द्वारा प्राण दे दिये। असाध्य रोग की अवस्था में भी इसे करने की प्रथा रही है।
कायोत्सर्ग का कालमान चेष्टा-कायोत्सर्ग का काल उच्छ्वास पर आधारित है। विभिन्न प्रयोजनों से वह आठ, पच्चीस, सत्ताईस, तीन सौ, पाँच सौ और १००८ उच्छ्वास तक किया जाता है।
अभिभव कायोत्सर्ग का काल जघन्यतः अंतर्महुर्त और उत्कृष्टतः एक वर्ष का है। बाहुबलि ने एक वर्ष का कायोत्सर्ग किया था।