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________________ [ ६७ ] "छोड़ दो” । इस प्रकार हम देखते हैं कि व्युत्सर्ग जैन साधना का व्यापक तत्व है। जैन धर्म साधना को दो रूपों में प्रस्तुत करता है । पहला रूप संयम या संबर है। इसका अर्थ है जीवन में अनुशासन, जिससे नये दोष न आने पायें | दूसरा रूप निर्जरा है, इसका अर्थ है संचित मेज तथा दुर्बलताओं को दूर करने का अभ्यास । साधक के लिये दोनों का अभ्यास आवश्यक माना गया है। एक ओर उसे अपना जीवन को इतना संयत और अनुशासित बनाना चाहिये कि कोई दुर्बलता या असावधानी पास न आने पाए। दूसरी ओर ऐसे अभ्यास करते रहना चाहिए जिनसे आत्मा उत्तरोत्तर दृढ़ तथा शुद्ध होती जाए । व्युत्सर्ग के भी दो रूप हैं। प्रथम रूप में उसका अभ्यास बाह्य प्रवृत्तियों के त्याग के रूप में किया जाता है। क्रोध, अहंकार, लोभ आदि मानसिक विकारों, मन, वचन और शरीर की अशुभ प्रवृत्तियों, आलस्य, व्यर्थ की गप्पों तथा शारीरिक चेष्टाओं के रूप में अनुशासनहीनता का परित्याग इसमें आता है । व्युत्सर्ग का दूसरा रूप वे अभ्यास हैं जिनमें कुछ समय के लिये शरीर से भी नाता तोड़ दिया जाता है उन्हें कायोत्सर्ग कहा जाता है। जैन साधना में इसे सर्वश्रेष्ठ तप माना गया है। शास्त्रों में चार बातों का व्युत्सर्ग बताया गया है। सर्वप्रथम शरीर - व्युत्सर्ग है, इसका अर्थ है कुछ समय के लिये अपने शरीर से नाता तोड़ना । इसकी व्याख्या आगे की जायगी। दूसरा गण-व्युत्सर्ग है इसका अर्थ है गण अर्थात् साथियों को छोड़ कर चले जाना । 1 बालक जब तक चलना नहीं सीखता उसे माता-पिता की सहायता आवश्यक होती है; वह उनकी अंगुली पकड़कर चलना सीखता है किन्तु चलने की सामर्थ्य होने पर भी यदि वह उनके सहारे रहता है तो उसका विकास रुक जाता है वह ज्यों ज्यों बड़ा होता है, प्रत्येक बात में आत्म-निर्भर होता चला जाता है । उसी प्रकार नव दीक्षित शिष्य के लिये गुरु तथा अन्य साथियों का सहारा आवश्यक होता है किन्तु धीरे-धीरे वह शक्ति प्राप्त करता है और उस सहारे को अनावश्यक ही नहीं, बन्धन मानने लगता है। गुरु तथा साथी उस पर इस प्रकार छाये रहते हैं कि स्वतन्त्र अभ्यास के लिये उसे अवसर ही नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में वह गण को छोड़ कर चला जाता है और अकेला विचरण करता है । इस अवस्था को गण-व्युत्सर्ग कहा जाता है। तीसरा उपधि-व्युत्सर्ग है । उपधि का अर्थ है वस्त्र, पात्र, शेग्या आदि वे सब वस्तुएँ जो साधारण जीवन के लिये आवश्यक हैं। किन्तु साधक उनसे भी :
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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