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[ १६ ] के लिये अपने-अपने प्रवर्तक के शब्दों को पकड़े रहते है और उन्हें पद-पद पर. दोहराते रहते हैं। वे अपनी बुद्धि से सोचना और अपनी आंखों से देखना बन्द करके अचेतन वस्त्र के समान उन्हीं के प्रवाह में बह जाना चाहते हैं। इस प्रकार के प्रवाह को प्रगति नहीं कहा जा सकता। प्रगति का अर्थ है स्वयं सोच समझ कर स्वतन्त्रता पूर्वक कदम बढ़ाना।
महापुरुष के पीछे आश्रम या अन्य प्रकार की संस्थाओं का जाल खड़ा हो जाता है। वे उसके शब्दों को दोहराते रहते है और स्वतन्त्र विचारों को दण्डित करने का प्रयल करते रहते हैं। विचारों का अजीण उन्हें उन्मत्त बना देता है। धर्म का रक्त रंजित इतिहास अनपचे विचारों का इतिहास है।
डकार उसी भोजन की आती है जो नहीं पचता और छाती पर रखा रहता है। दूषित वायु ऊपर उठती है और तब तक चेन नहीं पड़ता जब तक वह बाहर नहीं निकल जाती। इसी प्रकार अनपचे विचार हमारी छाती पर धरे रह जाते हैं। अहंकार मिश्रित वायु बेचैनी पैदा करती है और उन्हें उगलने के लिए उकसाती रहती है। जब उगल देते हैं तो क्षणिक शांति मिलती है। इस उगलने के लिए श्रोताओं की आवश्यकता होती है और उन्हें एकत्रित करने के लिए मिथ्या आडम्बर एवं प्रपंच रचे जाते हैं, जिन्हें 'प्रभावना' कहा जाता है।
प्रदीप को अपने प्रकाश के लिए घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होती। वह जलता है और प्रकाश अपने आप फैलता है। घोषणा की आवश्यकता केवल बुझे हुए मिट्टी के पात्र की होती है, जो इस आधार पर सम्मान प्राप्त करना चाहता है कि उसका कभी प्रकाश के साथ सम्बन्ध रहा है। प्रायः देखा गया है कि जो व्यक्ति वर्तमान को उज्ज्वल नहीं बना सकता, वही अतीत की डोंगे हांकता है । यही बात धार्मिक परम्पराओं की है।
आदर्श और अहंकार जैन धर्म का कथन है कि वस्तु का अपने आप में कोई मूल्य नहीं होता। उसका निर्धारण ग्रहण करने वाले की मनोवृत्ति के आधार पर किया जाता है। वही व्यक्ति एक के लिये आत्म-शुद्धि का प्रेरक हो सकता है, दूसरे के लिये क्रोध या द्वेष का और तीसरे के लिए राग या मोह का। ऐसी स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता कि उसे स्वीकार करने वाले समो मनुष्यों को एक-सा लाभ होगा।
धर्म संस्था के घटक तीन तत्त्व माने जाते है-देव, गुरु और धर्म । देव तत्त्व उस लक्ष्य को प्रगट करता है जहाँ हमें पहुँचमा है, वह आत्म शुद्धि