________________
अपनश कथाकाव्य
! बा देवेन्द्रनार शास्त्री मूलतः अपनीय साहित्य पुराण, चरित और कथाकाव्य है। पुराणकाव्य में जहाँ महापुरुषों का अलौकिक जीवन वर्णित है वहीं चरिसकायों में प्रसिद्ध पुरुषों के लौकिक जीवन का सुन्दर चित्रण उपलब्ध होता है। विषयविस्तार, विभिन्न आख्यानों की जटिलता, कार्यान्विति का अभाव और पंच लक्षणों से समन्वित पौराणिक शेली विशेष रूप से पौराणिक काव्यों में लक्षित होती है। स्वयम्भूकत पउमचरित, रिहणेमिचरिउ, पुष्पदन्त विरचित “महापुराण धवल रचित "हरिवंसपुराण" तथा यश-कीर्तिकृत "पाण्डवपुराण' आदि पौराणिक काव्य है, जिसमें विविध राजवंशों, ऐतिहासक वंशावली तथा महापुरुष राम, कृष्ण एवं पाण्डव आदि का सविस्तार वर्णन रहता है। संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के साहित्य में पुराणकाव्य की यह विषा निश्चय ही धार्मिक आस्था तथा रीति-नीति से गुम्फित होती है। इसीलिए महापुरुषों के जीवन के साथ ही उनके पूर्व भवों, प्रासंगिक विभिन्न घटनाओं, व्रत-महात्म्य, अवान्तर कथाओं और जीवन से सम्बन्धित विभिन्न कार्यव्यापारों का अतिशयोक्ति पूर्वक वर्णन किया जाता है। परन्तु चरित-काव्य में नायक के सम्पूर्ण जीवन की विभिन्न घटनाओं तथा संघर्षों का वर्णन किया जाता है। इसलिए आचार्य आनन्दवर्धन ने इसे सकलकथा कहा है और आचार्य हेमचन्द्र सकलकया को ही चरितकाव्य कहते हैं। आ० हरिभद्रसूरि रचित "णेमिणाहचरिउ" चरितकाव्य है। परन्तु उसके अन्तर्गत वर्णित सनत्कुमार की कया है, जिसे खण्डकथा कहा जा सकता है । अतएव किसी भी रचना के पीछे “चरिउ” “कहा" "पुराण" या"कब" शब्द जुड़ा होने से वह उस कोटि की रचना नहीं मानी जा सकती। और इसीलिए पुराण नाम से प्रचलित कुछ काव्य अन्यों को चरितकाव्य ही माना जाना चाहिए । पौराणिक नहीं। उदाहरण के लिए---कवि
१-"सकलकयेति चरितमित्यर्थः । काव्यानुशासन, ८,८ की वृत्ति । २-प्रन्थान्तरप्रसिद्ध यस्यामितिवृत्तमुच्यते विधेः। मध्यानुपान्ततो वा - सा खण्डकया यधेन्दुमती॥ नही।