________________
[ १५० ] उलमाए हुए है। कई विद्वान भगवान बुद्ध की ज्येष्ठता स्वीकार करते हैं तो कई भगवान महावीर की। दोनों ही अपनी मान्यता के आधारभूत पुष्ट प्रमाण भी प्रस्तुत करते हैं। पर निम्नलिखित प्रसंग में भ० बुख स्वयं अपने को भ. महावीर से कनिष्ठ स्वीकार करते हैं।
ऐसा मैंने सुना'-एक बार भगवान् श्रावस्ती के अनाथपिण्डक के जेतबन में विहार करते थे, तब राजा प्रसेनजित् कौशल, जहाँ भगवान थे, वहाँ गया। कुशल प्रश्न पूछा, एक ओर बैठ भगवान् से बोला-'हे गौतम ! आप भी तो, अनुत्तर मम्यग् सम्बोधि को प्राप्त कर लिया है, यह दावा करते हैं ? ___ "महाराज! अनुत्तर सम्यक् सम्बोधि को जान लिया है~-यह ठीक से बोलने पर मेरे लिए ही बोलना चाहिये।"
"हे गौतम ! ये जो श्रमण, ब्राह्मण, गणी, गणाचार्य, ज्ञात, यशस्वी, तीर्थकर बहुत जनों से सम्मानित, जेसे पूर्णकाश्यप, मक्खलि गोशाल, अजित केशकम्बली, प्रकुध कात्यायन, संजयवेलडिपुत्त और निम्गण्ठनाथपुत्त, वे भी अनुत्तर, सम्यक सम्बोधि को प्राप्त करने का दावा नहीं करते। आप गौतम तो अवस्था में भी छोटे हैं और अभी नये-नये प्रबजित भी। अतः आपके लिए तो कहना ही क्या?"
"महाराज ! क्षत्रिय, मर्प, अग्नि और भिक्षु इन चारों को छोटा नहीं ममझना चाहिये। छोटा मानकर इनका परिभव नहीं करना चाहिये।"
उक्त निदर्शन से 'जैन धर्म, बौद्ध धर्म की एक शाखा है' का सिद्धान्त भी निमल हो जाता है।
क्रियावादी और अक्रियावादी :यह हम पहले ही जान चुके हैं कि भगवान श्री महावीर तथा श्री बुद्ध का युग वैचारिक उथल-पुथल का युग था, और था वह नाना मतवादों से संकुल । मानव-मन स्वभावतः अनन्त जिज्ञासाओं का अजस्त्र प्रवहमान स्रोत है। अहनिश ममुत्पद्यमान जिज्ञासाएँ ही, उनके उदीयमान, समुन्नत जीवन की प्रतीक है। पर जब तरल जिज्ञासाओं के समाधान का एक केन्द्र निश्चित नहीं होता तब तक भाबुक मन गन्तव्य पथ पर चलने के लिए दृढनिष्ट नहीं हो पाता तथा अपने मार्ग के कदम-कदम को संशय की आँखों से देखता है। उस समय धर्मनायक तथा शाम्ता एक नहीं था। परस्पर विरुद्ध अभिमत रखने वाले
१-सं०नि० प्र० ३.१-१ दहरसुत्त पृ० ६७ ॥