________________
[ १५८ ] जीवक-"मन्ते ! ये अहेत, सम्प-संख, मेरे आम के बगीचे में साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के महाभिक्षु संघ के साथ विहार कर रहे हैं। उन भगवान् गोतम का ऐसा मंगलयश फैला हुआ है-वह भगवान् अईत्, सम्यक सम्बुद, विद्या और चरण से युक्त, सुगत, लोकविद्, पुरुषों का दमन करने के लिए अदभुत चाबुक सवार, देव मनुष्यों के शास्ता बुद्ध भगवान् हैं। महाराज ! आप उनके पास चलें । धर्म-चर्चा करें। ऐसा करने से कदाचित् आपका चित्त प्रसन्न हो जाए।"
यह सुन मगधराज ने हस्तिसैन्य तैय्यार करने का आदेश दिया। अन्तापुर सहित राजा, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। भगवान् को अभिवादन कर, मिक्ष-संघ को हाथ जोड़ एक ओर बैठ गया। भगवान् से निवेदन किया“भगवान् ! मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ, कृपया अनुमति दें।"
"महाराज ! जो चाहें पूछ सकते हैं।"
"भन्ते ! जो हस्ति-आरोहण, अश्व-आरोहण आदि आदि अनेक प्रकार की कलाए हैं उनके आधार पर, प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी जीविका का निर्वाह करते हुए सुखी रहता है । यह उनका प्रत्यक्ष फल हम देखते हैं। भन्ते! क्या इसी प्रकार श्रामण्य ( साधुत्व ) का भी कोई प्रत्यक्ष फल मिलता है ?" __महाराज ! क्या इसी प्रश्न का अन्य श्रमण-ब्राह्मणों से भी उत्तर जाना
"भन्ते । जाना है।"
"महाराज ! यदि आपको भारी न हो तो बताइए, उन्होंने क्या उत्तर दिया।
"भन्ते ! मुझे कोई भारी नहीं, यदि भगवान् या उनके समान कोई बैठा हो।"
"तो महाराज ! कहें।”
"भन्ते ? मैंने पूर्ण काश्यप से श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल पूछा तो उसने अक्रियावाद का वर्णन किया।
मक्खलिगोसाल ने देववाद का, अजितकेशकम्बली ने उच्छेदवाद का, प्रकुदकात्यायन ने अकृतवाद का, संजयवेलठिपुत ने अनिश्चितवाद का वर्णन किया।