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[ १५६ ] का नाथ नहीं बन सकता। वहाँ के स्थान में न्यण्यशजांना' सूत्र के द्वारा 'ब" आदेश होता है। इस दृष्टि से ज्ञाता का मागधी रूपान्तर 'आता' होता है। अतः भगवान महावीर यदि शातपुत्र होते तो वहाँ नाथपुत्त के बदले 'आतपुत्त' प्रयोग मिलना चाहिये था। पर ऐसा नहीं हुआ। अतएव विदित हो कि 'नागपुत' के परिवर्तित रूप नातपुत्त की तरह बौद्ध-साहित्य में भी 'नागपुत्त' का ही रूपान्तर नाथपुत्त है।
अन्द, एकबार हम अर्थ की गहराई तक न भी जाएं तो भी यह तो निःसंकोच मान सकते हैं कि 'नाथपुत्त' शब्द भगवान् महावीर के लिये ही व्यवहृत हुआ है। उसके सहचरित 'निम्गण्ठ' शब्द से यह विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है। क्योंकि यह शब्द जैन श्रमणों का ही द्योतक तथा पर्यायाधिक है।
उत्तराध्ययन की वृत्ति में पाँच प्रकार के श्रमणों का उल्लेख मिलता है। जेसे निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक तथा आजीवक। उनमें भगवान महावीर तथा पार्श्व की परम्परा के श्रमणों को निर्ग्रन्थ कहा गया है। बौद्ध साहित्य में स्थान स्थान पर उल्लिखित 'निगण्ठो नाथपुत्तो, संघीचेचवगणीच गणायरिओ, ध्ञाता, यसस्सी, तित्यकरो, साधु सम्मतो, रतज, चिर पवजित्तो, अद्धगतो बयोअनुप्पतो' भी इसी ओर संकेत करते है।
बौद्ध साहित्य में भगवान महावीर से सम्बन्धित अनेकों उल्लेख मिलते हैं। उनमें से कुछ घटना-प्रधान हैं, कुछ औपदेशिक तथा तात्त्विक हैं। प्रत्येक उल्लेख के पीछे भ० महावीर की, उनकी मान्यताओं की, उनके संघ की न्यूनता प्रदर्शित कर श्री बुद्ध के उन्नयन की भावना बलवती पाई जाती है। बौद्धसाहित्य बहुत सज-धज के साथ हमारे सामने प्रस्तुत होता है। अपने सिद्धांतों को तथा शिक्षाओं को किसी घटना से जोड़कर प्रकाशित करना बौद्ध साहित्य की शैली का प्रमुख वैशिष्ठ्य रहा है। जैनागमों में इस शैली का पूर्णतः अभाव है।
बौद्ध साहित्य में भगवान महावीर के विषय में कहाँ, क्या, किस प्रकार का उल्लेख मिलता है-यही इस प्रस्तुत निबन्ध का प्रमुख विषय है। उनका विश्लेषण तथा सूक्ष्म मीमांसा प्रस्तुत लेख का विषय नहीं। तथापि यथा संभव स्वल्पतम चिन्तन का भी प्रयास हो सकेगा, ऐसी आया है।
१-दीर्षनिकाय ब्रह्मजाल सूत्र ।