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________________ [ १४२ ] नन्दीसूत्र में विवरण थोड़े एकान्तर से इस प्रकार मिलता है से किं तं पण्हाबागरणाई ? पव्हाबागरणेसु णं अत्तरं परिणतयं, अतरं अपसिणस, अत्तरं परिणापसिणसयं, तं जहा -: -अंगुठ्ठपसिणाई, बाहुपसिपाई बागपरिणाई, अन्नेवि विचित्ता बिज्जाइसया, नागसुवण्णेहिं सद्धिं दिव्या संवाया आघविज्जन्ति, पव्हावागरणाणं परित्ता बायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा बेटा, संखेजा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुतीओ, संखेज्जाओ संगहणोओ, संखेज्जाओ परिवत्तीओ, सेणं अंगठ्ठयाए दसमे अंगे एगे सुअक्खंधे, पणयालीसं व्यज्यणा, पणयालीसं उद्दे सणकाला, पणयालीसं समुद्दे सणकाला, संखेज्जाई पयसहस्साइ पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अनंता गमा, अनंता पज्जवा, परित्ता तसा, अनंता थावरा, सासयगडनिबद्धनिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जन्ति, पण्णविज्जन्ति, परूविज्जन्ति, दंसिज्जन्ति, निदंसिज्जन्ति, उवदंसिज्जन्ति, से एवं आया, से एवं नाया एवं विष्णाया एवं चरणकरण - परूवणा आघविज्जर, से तं पण्हावागरणाई १० ॥ सू० ५४ ॥ अर्थात् प्र० - "देव ! वे प्रश्नोत्तरों के दश अध्ययन कैसे हैं ?" उत्तर- वे इस प्रकार हैं- प्रश्न व्याकरणों में १०८ प्रश्न हैं अर्थात् पूछे हुए प्रश्नों के जपमात्र से शुभाशुभ उत्तर कहनेवाली विद्या व मन्त्र १०८ हैं, १०८ अप्रश्न याने बिना पूछे शुभाशुभ कहनेवाली विद्याएं हैं, पृष्टापृष्ट - पूछे या बिना पूछे शुभाशुभ कहनेवाली विद्याएं भी १०८ हैं, जैसे कि -अंगुष्ठ प्रश्न, अंगुष्ट विद्या, बाहु प्रश्न, आदर्श प्रश्न । अन्य भी अनेक विचित्र विद्यातिशय तथा नागकुमार सुवर्णकुमार, आदि के साथ दिव्यसम्वाद इसमें कहे जाते हैं, प्रश्न व्याकरण की परिमित वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोग द्वार, तथा बेढ़ - श्लोक, निर्युक्ति, संग्रहणी और प्रतिपत्तियाँ ये सब संख्यातर हैं, अंग की अपेक्षा वह दशवाँ अंग है, एक श्रुतस्कन्ध और पैंतालीस इसके अध्ययन हैं, पदपरिणाम से और अनन्तपर्यायें पैंतालीस उद्देशनकाल और पैंतालीस ही संख्येय * --- हजारों पद हैं, संख्येय अक्षर, हैं, परिमित त्रस व अनन्त स्थावर हैं तथा शाश्वत और कृत इसमें निबद्ध है, प्रज्ञापन, प्ररूपण, हेतु आदि से सिद्ध जिनप्रणीत भाव यहाँ कहे जाते हैं । दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से विशेष कह जाते हैं, फल स्थिरचेता वह पाठक एवम्भूत आत्मावाला हो जाता है तथा शास्त्रोक्त विद्याओं का यथार्थ ज्ञाता व विज्ञाता बनता है, इस प्रकार प्रश्न व्याकरण में चरण करण की प्ररूपणा की जाती है, यह प्रश्न व्याकरण दशवां अंग वर्णन से पूर्ण हुआ । सू० ५८ १-६२ लाख १६ हजार पद प्रथम व्याख्या के अनुसार होते हैं। समुद्देशनकाल हैं। अनन्त गम अर्थज्ञान
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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