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________________ प्रश्न व्याकरण सूत्र-एक अध्ययन (श्री अगरचन्द नाहटा] भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का प्रधान स्थान है। यद्यपि कई लोगों ने वैदिक दर्शनों के ही ६ मेद बतलाते हुये उन्हें षड्दर्शन की संज्ञा दे दी और कइयों ने षड्दर्शन के नामों में बौद्ध को तो सम्मिलित कर लिया पर जैन को बोड़ दिया। कई लोगों ने जैन दर्शन को नास्तिक दर्शन भी बतला दिया ; पर वास्तव में केवल वेदों को न मानने से ही किसी को नास्तिक कह देना उचित नहीं है। जैन दर्शन तो आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म को मानता है इसीलिये किसी भी दृष्टि से उसे नास्तिक कहना अनुचित है। दर्शनों की संख्या के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं रहा है इसी तरह नामों के सम्बन्ध में भी। बौद्ध दर्शन की अपेक्षा जैन दर्शन बहुत प्राचीन है यह तो सभी विद्वान् स्वीकार करते ही हैं। दार्शनिक विचारों के रूप में भी वह अत्यन्त महत्वपूर्ण और गौरवशाली है। ____ जैन दर्शन के अनुसार उसकी दार्शनिक मान्यतायें या विचारों की परम्परा इतनी अधिक प्राचीन है कि उसकी आदि बतलाना सम्भव नहीं। समय समय पर अनेकों महापुरुषों ने महान् साधना करके आत्म-साक्षात्कार किया और आत्मा की निर्मलता द्वारा जो शान उन्हें प्राप्त हुआ उस केवल-शान द्वारा वस्तु-तत्व का निरूपण और साधना का मार्ग उन तीर्थंकर महापुरुषों ने जगहजगह घूमकर सर्व-सुलभ बना दिया। लोक-भाषा में उनकी वाणी प्रकटित हुई और बिना किसी भेद-भाव के उसको सुनने और उसके अनुसार आचरण करने के लिये सबके लिये मार्ग खुला था। न पुरुष और स्त्री का भेद भाव, न नीच और उच्च जाति का। समभाव या समता-धर्म ही जैन धर्म का प्रधान सन्देश है। अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त आदि धर्मों का विकास उसी समत्वभाव के अन्तर्गत हुआ है। राग और द्वेष का अभाव ही समता है। तीर्थंकरों ने स्वयं उस समत्व की सबोंब उपलब्धि की और जन-जन को उसी मार्ग की ओर उन्मुख किया। इस अवसर्पिणी काल में धर्म प्रवर्तक या चार्विध संघ के स्थापक तीर्थकर २४ हो गये है जिनमें से अन्तिम भगवान् महावीर की मंगलमय वाणी का ही कुछ अंश हमें प्राप्त है। करीब १ हजार वर्ष तक वह वाणी मौखिक रूप से ही प्रचारित होती रही और इसी बीच
SR No.010092
Book TitleJain Darshan aur Sanskruti Parishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherMohanlal Banthiya
Publication Year1964
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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