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[.१९ ] है कि जो-जो व्यक्ति सत्य को पकड़ने में तत्पर हैं। उनमें जिन-जिना की प्रकिया ठीक होगी उनको सत्य एकरूप ही मिलेगा। __सत्य की उपलब्धि से काल, स्थान और व्यक्तियों का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता। दो और दो का संकलन भारतीयों के लिए चार होगा तो एक भारतीयेतर के लिए क्यों नहीं होगा? ___ मनोविज्ञान के अनुसार “सभी व्यक्तियों में सहज ही कुछ-कुन समान प्रवृत्तियाँ होती है। जब प्रवृत्तियाँ समान हैं तो परिणाम भी समान ही आएगा। अतः किसी समान तथ्य को एक दूसरे से प्रभावित बताने की अपेक्षा, तुलनात्मकता अधिक उचित रहती है।
कई शोधकारों ने अभी-अभी यह तथ्य खोजा है कि पाश्चात्य-दर्शन पर निश्चित रूप से जैन-दर्शन का प्रभाव रहा है फिर भी इसमें तुलनात्मकता में कौन सी बाधा उपस्थित होती है ? इसी दृष्टिकोण को समक्ष रखते हुए प्रस्तुत निबन्ध में मैंने जैन दर्शन और पाश्चात्य-दर्शनों का एक तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयत्न किया है। __ पाश्चात्य-दर्शन के तुलनात्मक स्थल बड़े विचित्र हैं। जो तथ्य जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य भारतीय-दर्शनों में भी नहीं मिलते, उन तथ्यों का पाश्चात्य दर्शनों ने विस्तार से विवेचन किया है।
परमाणु और सृष्टि सर्वप्रथम सूक्ष्मतम तत्त्व परमाणु को ही लें। ल्युसियस और उसके शिष्य डिमॉक्रीट्स ने परमाणु का जो स्वरूप और कार्य बतलाया है। कुछ संशोधनपूर्वक जैन-दर्शन में भी ज्यों का त्यों उल्लिखित है। उन्होंने कहा-'परमाणु मौलिक अविभाज्य, अतीन्द्रिय, नित्य, उत्पत्ति-विनाश रहित जड़ तत्त्व है। गति उनका धर्म है। उनमें केवल संख्या, परिमाण और आकार का भेद है, अन्य गुणों का भेद उनमें नहीं। वे आकाश में स्थित है और एक दूसरे से अलग। सृष्टि की उत्पत्ति का अर्थ है-'उनका परस्पर संयोग।
इन्हीं दोनों दार्शनिकों के परमाणु सम्बन्धी विचार 'पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास में और भी स्पष्ट व सृष्टि-संहार की पूरी व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं। जैसे".." सब वस्तुओं का विभाग करते करते अन्त में हमलोग परमाणु तक पहुंचते हैं, परन्तु परमाणु का विभाग नहीं हो सकता । गुण और गुरुत्व में समी परमाणु एक ही प्रकार के हैं। केवल आकार में एक परमाणु दूसरे पर
१-पाश्चात्य-दर्शन पृ० १३