________________
[ ११ ] . होने पर चेतन्य उत्पन्न होता है और उनके बिखरने पर विलीन हो जाता है। न प्रेत्यलोक है, न सत्त्व ओपपातिक होते है, न पुण्य है न पाप, शरीर के नाश होने पर आत्मा भी नष्ट हो जाती है। इसकी पुष्टि में अनेक उदाहरण दिए गए हैं। जेसे :-.
(१)जल बुबुद जल से अतिरिक्त कुछ नहीं है। वैसे ही भूत व्यतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है।
२-कवली स्तम्भ की बाथ त्वचा दूर करने के बाद वह त्वचा मात्र ही रह जाता है, अन्तस्तल में कोई सार प्रतीत नहीं होता। वैसे ही भूत विघटन के बाद अन्तः सारभूत आत्मा नाम का तत्त्व उपलब्ध नहीं होता।
३-अग्नि-पिण्ड को घुमाने से चक्र बुद्धि उत्पन्न करता है, वैसे ही भूत समुदाय विशिष्ट क्रियापन्न हुआ जीव भ्रान्ति को उत्पन्न करता है। ___४-स्वच्छ दर्पण में बहिःस्थित पदार्थ भी अन्तःस्थित पदार्थ प्रतीत होते हैं।
५-भीष्म ग्रीष्म में परिस्पन्दित किरणें जलाकार विज्ञान उत्पन्न करती हैं।
६-गन्धर्व नगरादि अन्यथा :प्रतीत होते हैं वैसे ही कायाकार परिणत भूतों से अभिन्न होती हुई भी आत्मा भिन्न प्रतीत होती है। और भी जैसे कोई पुरुष कोश (म्यान) से खड्ग निकाल कर यह कोश है, यह खड्ग है, जैसे मुञ्ज से ईक्ष (शलाका) पृथक कर यह मुंज (तृणविशेष) है, यह ईक्ष है, जेसे मांस से अस्थि, करतल से आमलक, वही से नवनीत, तिलों से तेल, इक्षु से इक्षुरस और अरणि से अग्नि को पृथक कर बता देता है। वेसे ही शरीर से पृथक् जीव का कोई भी उपदर्शयिता नहीं है। अतः शरीर मात्र ही जीव है, शरीर व्यतिरिक्त आत्मा नाम का कोई तत्त्व नहीं।
तज्जीन और भूतवादियों में उल्लेखनीय भेद यह है कि भूतवादी भूतों की ही कायाकार परिणत होने पर धावन आदि क्रियाएं मानते हैं, जब कि तज्जीव भूतों के कायाकार परिणत होने पर चैतन्य नामक तत्त्व की उत्पति । इतर मान्यताएं लगभग इनकी समान हैं।
इस प्रकार अनेक मतवादों का रोचक उल्लेख मिलता है। सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुत-स्कन्ध में मुनि आर्द्रक और अन्य मतावलम्बियों का रमणीय एवं मननीय संवाद उपलब्ध होता है। जिसके आधार पर यह भली भांति जाना
१-सू० राश०प०१२।