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[ ११५ ] कालवादी:-काल को ही विश्व की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय का हेत , मानते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की भाँति मात्र काल ही विश्व-व्यवस्था की आधार शिला है और कोई तत्त्व नहीं, ऐसी उनकी मान्यता है।'
ईश्वरवादी:-ईश्वर को ही जगत् स्रष्टा मानता है और सृष्टि के अणुअणु में उसकी झलक देखता है। प्राणी अपने सुख-दुःख के निर्माण में और संहरण में सर्वथा असमर्थ है। ईश्वर प्रेरित ही वह स्वर्ग और नरक में गमनागमन करता है।
एकात्मवादीः-जैसे पृथ्वी स्तूप एक होने पर भी सरित् , समुद्र, पर्वत, नगर, सन्निवेश, आदि के आधार भूत होने से विचित्र प्रतीत होता है और निम्न, उन्नत, मृदु, कठिन, रक्त, पीत आदि भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, फिर भी वह भिन्न नहीं है, एक है। वैसे ही ज्ञान-पिण्ड आत्मा एक ही है। जल में चन्द्र प्रतिबिम्ब की भाँति आत्मा एक होने पर भी हमें चेतना
चेतन पदार्थों में विभिन्न रूप से प्रतिबिम्बित होता है। उदाहरणार्थ-जैसे शरीर में होने वाला गंठ शरीर की वृद्धि के साथ वृद्धिगत होता है। जैसे वल्मीक पृथ्वी से समुत्पन्न हुआ पृथ्वी को परिवेष्टित कर ठहरता है। जैसे वृक्ष पृथ्वीजात होने से उससे भिन्न नहीं होते। जैसे पुष्करिणी पृथिवी-प्रसूता पथ्वी पर ही प्रसार पाती है, उदक प्राचुर्य उदक के ही अन्तर्गत रहता है, जल बुदबुद् जल में ही अधिवास करते हैं, वेसे ही चेतनाचेतन रूप समस्त धर्म आत्म विवर्त हैं, वे सब आत्मा को ही व्याप्य बना ठहरते हैं। "पुरुष एवेदं सर्वे यद्भूतं यच्च भाव्यं"। इनके मत में आत्मा ही सब कुछ है। परमार्थतः आत्म व्यतिरिक्त कोई तत्त्व इन्हें मान्य नहीं है। १-कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। काल सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ||
प्र० आ० वृ० ५० १६-१ २-अशो जन्तुरनीशः स्या-दात्मनः सुख-दुःखयो। ईश्वरप्रेरितो गच्छेवदं वा स्वर्गमेव वा।।
प्र० आ० नृ० १६ ३~सू० शशा३ ४-एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते प्रतिष्ठितः । एकथा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥
सू० २।१२२ ५-सू० शश२१, १-२