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[ ८६] विद्वानों के समक्ष इसे प्रस्तुत किया। इसी घटना-प्रसंग से तिरुवल्लुवर इसके रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हो गए।' दूसरा कारण यह भी था कि आचार्य कुन्द-कुन्द ने यह अन्य वल्लुवर को प्रसारार्थ सौंपा था और वे इसका प्रसार करते थे; अतः सर्व साधारण ने उन्हें ही इसका रचियता माना। ऐसा भी सम्भव है कि आचार्य कुन्द-कुन्द इस ग्रन्थ को सर्वमान्य मनाए रखने के लिए अपना नाम इसके साथ जोड़ना नहीं चाहते थे, जैसे कि उन्होंने अपने देव का नाम भी सीधे रूप में अन्य के साथ नहीं जोड़ा। रचियता का नाम गौण रहे तो प्रसारक का नाम रचयिता के रूप में किसी भी अन्य के साथ सहज ही शुड़ जाता है।
उपसंहार "तिरुकुरल' काव्य आज दो सहस्र वर्षों के पश्चात् भी एक नीति अन्य के रूप में समाज के लिए बहुत उपयोगी है। समग्र जैन समाज के लिए यह गौरव का विषय होना चाहिए कि एक जैन रचना पञ्चम वेद के रूप में पूजी जा रही है। अपेक्षा है, इस सम्बन्ध में अन्वेषण कार्य चालू रहे। यह ठीक है कि एतद् विषयक बहुत सारी शून्यताएँ तमिल की जैन परम्परा भर देती है, पर अपेक्षा है, उन शून्यताओं को ऐतिहासिक प्रमाणों से और भर देने की। प्रो. ए. चक्रवर्ती ने इस दिशा में बहुत प्रयत्न किया है, पर अपने प्रतिपादन में कुछ-एक सहारे उन्होंने ऐसे भी लिए हैं जो शोध के क्षेत्र में बड़े लचीले ठहरते हैं। जैसे तिरुक्कुरल के धर्म, अर्थ, काम आदि थाधारों की कुन्द-कुन्द के अन्य अन्थों में वर्णित चत्तारि मंगल के पाठ से पुष्टि करना। हमें जेनेतर जगत् के सामने वे ही प्रमाण रखने चाहिए जो विषय पर सीधा प्रकाश डालते हों। खींचतान कर लाए गए प्रमाण विषय को बल न देकर प्रत्युत निर्बल बना देते है। आग्रहहीन शोध ही लेखक की कसौटी है। शोध का सम्बन्ध सत्य से है, न कि सम्प्रदाय से। 1.--Thirukkural Ed. by porf. A. Chakravarti, Introduction
p.xiii. “According to the Jaina tradition, Elacharya was a great Nirgrantha Mahamuni, a great digambara ascetic, not caring for woldly honours. His lay disciple was delegated to introduce the work to the scholars assembled in the Madura acadamy of the sangba. Hence the introduction was by Valluwar, who placed it before the scholars of the Madura sangha for their approval."