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छोड़ा और पति के पास चली गई। कार्य-निवृत्त होकर जब वह वापस आई तो देखा, पानी का बर्तन ज्यों-का-त्यों कुंए में आधे लटक रहा है।
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सन्त पुरुष
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तिरुवल्लुवर एक सन्त पुरुष थे । उनकी साधना परिपूर्ण थी । उनके जीवन की एक ही घटना उनकी शान्त वृत्ति का पूरा परिचय दे देती है। एल सिंगल नामक एक धनाढ्य व्यक्ति वल्लुवर के ही नगर में रहता था । वह अपने समुद्री व्यवसाय से प्रसिद्ध था । उसके एक लड़का था । वह अधिक लाड़-प्यार में ढीठ-सा हो गया था। बड़े-बूढ़ों के साथ भी शरारत कर लेना उसके प्रतिदिन का कार्य था । एक दिन वह अपने साथियों की टोली के साथ उस मुहल्ले से गुजरा, जहाँ वल्लुवर अपना बुनाई का काम किया करते थे । उस समय वल्लुवर शान्त भाव में किसी चिन्तन में बैठे थे और उनके सामने बेचने की दो साड़ियाँ रखी थीं। शरारती युवक के मित्रों ने वल्लुवर को एक सन्त बताते हुए उनकी प्रशंसा की। शरारती युवक ने कहा- सन्तपन स्वयं एक ढोंग है । एक आदमी की अपेक्षा दूसरे आदमी में ऐसी कौन सी विशेषता होती है, जिससे वह सन्त बन जाता है। मित्रों ने कहा - शान्ति । इसी विशेषता से सन्त कहलाता है । शरारती युवक यह देखता हूँ इसकी शान्ति, वल्लुवर के सामने ही आ धमका। ली और बोला - इसका क्या मूल्य है ?
कहते हुए कि मैं
एक साड़ी उठा
वल्लुवर - दो रुपये ।
युवक ने साड़ी के दो टुकड़े कर दिये ओर एक टुकड़े के लिये पूछाइसका क्या मूल्य है ?
युवक चार, आठ, सोलह
बल्लुवर ने शान्तभाव से कहा- एक रुपया । आदि टुकड़े क्रमशः करता गया और अन्तिम का दाम पूछता ही गया । सारी साड़ी मटियामेट हो गई वल्लुवर उसी शान्तभाव मुद्रा से यह सब देखते रहे । अन्त में युवक ने कहा- मेरे यह साड़ी अब किसी काम की नहीं है। मैं नहीं खरीदता । वल्लुवर ने भी शान्तभाव से कहा – सच है बेटे ! अब यह साड़ी किसी के किसी काम की नहीं रही है। शरारती युवक तिलमिला- सा गया । मन में लज्जित हुआ। मित्रों के सामने हुई अपनी असफलता पर कुढ़ने लगा । जेब से दो रुपये निकाले और वल्लुवर के सामने रख दिये । वल्लुवर ने रूपयों को वापस करते हुए कहा- बेटे ! अपना सौदा पटा ही नहीं तो रुपये किस बात के ! अब युवक के प्रास कहने को कुछ नहीं रह गया था । अपनी ढीठता