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जैन-भक्तिके भेद
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है, फिर सुख शाश्वत क्यों नहीं होगा । दुःखोंके कारणभूत संसारके नष्ट हो जानेसे वह सुख इतना अधिक होता है कि कोई उसको नाप नहीं सकता । आचार्य पूज्यपादने उसको अतिशयवत्, वीतबाध, विशाल, वृद्धिहासव्यपेत, विषयविरहित, अन्यद्रव्यानपेक्ष, निरुपम, अमित, शाश्वत, उत्कृष्ट, अनन्तसार और परम कहा है। इसमें 'अन्यद्रव्यानपेक्ष' का अर्थ है कि सिद्ध-सुख स्वसापेक्ष है, उसमें बाह्य पदार्थोकी अपेक्षा नहीं करनी पड़ती ।
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सिद्ध और अरहंत में भेद
आठ कर्मोंका नाश करनेसे सिद्धपद प्राप्त होता है, और चार घातिया कमका क्षय करनेसे अर्हत्पद मिलता है ।"
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१. णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद-सहाउ ।
जो उ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि माउ ॥ देखिए वही : १।१७, पृ० २६ ।
२. क्षुष्णाश्वासकासज्वरमरणजरानिष्टयोगप्रमोहव्यापस्याद्युप्रदुःखप्रभवभवहतेः कोऽस्य सौख्यस्य माता ॥
दशमक्त्यादिसंग्रह : श्री सिद्धसेन गोयलीय सम्पादित, सलाल, साबरकांठा, पूज्यपाद, सिद्धभक्ति : छठा श्लोक, अन्तिम दो पंक्तियाँ, पृ० १०७ । ३. आत्मोपादान सिद्धं स्वयमतिशयवद्वीतबाधं विशालं वृद्धिहासव्यपेतं विषयविरहितं निःप्रतिद्वन्द्वभावम् । अन्य न्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं सर्वकालं उत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् ॥
देखिए वही : पूज्यपाद, सिद्धभक्ति : ७वाँ श्लोक, पृ० १०८-१०९ । ४. नार्थः क्षुविनाशाद्विविधरसयुक्तै रनपानैरशुच्या, नास्पृष्टैर्गन्धमाल्यैर्न हि मृदुशयनैग्र्लानिनिद्राद्यभावात् ॥ श्रातङ्कार्तेरभावे तदुपशमनसब जानर्थ तावद्,
दीपानर्थक्यवद्वा व्यपगततिमिरे दृश्यमाने समस्ते ॥ देखिए वही : ८वाँ श्लोक, पृ० ११० (
raise+ममहणा तिहुवणवरमन्यकमलमत्तंडा । अरिहा अणतणाणे अणुवमसोक्खा जयंतु जए ॥
यतिवृषम, तिलोयपण्णति : प्रथम भाग, शोलापुर, १९४३ ई०, २रा पथ और
५.
कम्म- चउक्कड़ विलड गइ अप्पा हुइ भरहंतु ॥
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योगीन्दु, परमात्मप्रकाश श्री आदिनाथ नेमिनाथउ पाध्ये सम्पादित, बम्बई, १९३७ ई०, २।१९५, पृ० ३३३ ।