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भूमिका "जैनधर्म ज्ञानप्रधान है, भक्तिका उससे सम्बन्ध नहीं।" एक ख्याति प्राप्त विद्वान्का ऐसा वाक्य सुनकर मैं चुप रह गया। कुछ छोटा-मोटा विवाद करना भी चाहा, किन्तु उनके गम्भीर व्यक्तित्व और पैनी विद्वत्ताके समक्ष संकुचित हो रह जाना पड़ा। उन दिनों मैं काशी विश्वविद्यालयका छात्र था। जिज्ञासाएं आती-जाती थी, किन्तु उनमें चपलता थी-सरकन अधिक, स्थिरता कम । वह न तो सूक्ष्मावलोकनकी उम्र थी और न वैसा अभ्यास बन सका। बात आयीगयी हो गयी।
आगे चलकर जब हिन्दोका भक्ति-काव्य मेरे विशेष अध्ययनका विषय बना तो कबीर, जायसी, सूर और तुलसीके काव्योंको तो पढ़ा हो, साथमें उनपर लिखे गये आलोचनात्मक साहित्यके अवलोकनका भी अवसर प्राप्त हुआ। पृष्ठभूमिके रूपमें भारतके विविध भक्ति-मार्गोंके तुलनात्मक विवेचनने मेरे मनको आकर्षित किया । एक दिन सूझा कि ब्राह्मण, बौद्ध, सूफी आदिके साथ यदि जैन-भक्ति-मार्ग पर भी कुछ लिखा हुआ उपलब्ध हो सके, तो भारतको भक्ति-साधनाका अध्ययन पूरा हो । जैन-भक्तिपर कोई ग्रन्थ न मिला। इसके साथ हो वर्षों पहलेका उपर्युक्त वाक्य पुनः मनमें उभर आया और यह प्रश्न कि-'क्या जैनधर्मका भक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं ?' फिरसे आकुल करने लगा। इसी जिज्ञासाके कारण मैं प्रस्तुत ग्रन्थको रचनामें प्रवृत्त हो सका। जब इस विषयको विश्वविद्यालयको विद्या-परिषद्ने स्वीकार कर लिया, तो मुझे और भी प्रोत्साहन मिला। खोजमें तत्पर हुआ। उसोका यह परिणाम है, जो विद्वानोंके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
जैनधर्म 'ज्ञान प्रधान' है, यह कथन सत्य है, किन्तु उसका भक्तिसे सम्बन्ध नहीं, असत्य है। जहां ज्ञानकी भी भक्ति होती हो, वहां भक्तिपरकता होगी ही। जैन आचार्योने 'दर्शन' का अर्थ श्रद्धान किया और उसे ज्ञानके भी पहले रखा। श्रद्धाको प्राथमिकता देकर आचार्योंने भक्तिको ही प्रमुखता दी। यहां तक ही नहीं, उन्होंने भक्ति-भावनाके आधारपर तीर्थङ्कर नामकर्मका बन्ध भी स्वीकार किया। उनकी भक्ति-सम्बन्धी आस्था असंदिग्ध थी। तुलसीके बहत पहले विक्रमको पहली शतीमें, आचार्य कुन्दकुन्द भगवान् जिनेन्द्रसे शानप्रदान करनेको याचना कर चुके थे। अर्थात् वे जिनेन्द्रकी भक्तिसे ज्ञानका प्राप्त