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जैन-मक्तिकाम्यकी पृष्ठभूमि कि, मंगलके द्वारा गुरुओंके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना । जिनकी महती कृपासे श्रुत-बोध करते-करते जीव शुद्ध आत्मा तकका साक्षात्कार कर लेता है, मंगलके रूपमें उनका स्मरण करना ही साधुत्वका चिह्न है। नास्तिकता-परिहारका भाव है कि, बड़ोंके आशीर्वादमें नास्तिकता-जन्य अविश्वासकी समाप्ति । परमेष्ठीके गुणोंका मंगलरूप स्तवन नास्तिकताके परिहारका पुष्ट-प्रमाण है। विघ्नोंकी समाप्तिका अर्थ है कि, निर्विघ्न रूपसे विद्या-सम्पन्न हो । मंगलके पर्यायवाची
मंगलके पर्यायवाचियोंका निर्देशन करते हुए तिलोयपण्णत्तिमें लिखा है, "पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य इत्यादिक सब मंगलके ही पर्याय अर्थात् समानार्थक शब्द कहे गये हैं।''
धनञ्जयने मंगलके पर्यायवाचियोंमें क्षेम, कल्याण, श्रेयस्, भद्र, भावुक, भविक, भव्य, श्वोवसीय और शिवको गिनाया है । प्रत्येककी व्युत्पत्ति भी दी है। कतिपय प्राचीन मंगलाचरण
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो मायरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सम्वसाहूणं ॥ जैनोंका प्राचीनतम मंगलाचरण है। विद्यानुवाद नामके पूर्वका प्रारम्भ इसी
१. आचार्य यतिवृषम, तिलोयपण्णत्ति : प्रथम माग, डॉ० उपाध्ये, डॉ. हीरा
लाल जैन सम्पादित, शोलापुर, १८। २. क्षिणोति क्लेशान् क्षेमम् , कल्यं नीरजत्वमनिति वा कल्याणम् , प्रकृष्टं
प्रशस्यं श्रेयस, मदते हादते सुखी भवति अनेन भद्रम्, भवनशीलं भावुकम् , प्रशस्तो भवोऽस्यास्तीति मविकम्, श्वः शोभनञ्च वसीयः श्वोवसीयः, पुण्यकृतो भवितव्यं भवति भन्यम् , शीयते तनूक्रियते दुःखमनेन शिवम् । कवि धनञ्जय, धनम्जयनाममाला : अमरकीर्तिके भाष्यसहित, पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी सम्पादित, मारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००७, श्लोक
१९८वाँ माष्यसहित । ३. अरिहन्तोंको नमस्कार, सिद्धोंको नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपा
ध्यायोंको नमस्कार और सर्वसाधुओंको नमस्कार ।