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जैन-भक्तिके अंग
भगवान्में अनन्त गुण हैं । उनमें से एकका वर्णन हो पाना ही अशक्य है, फिर अतिशयोक्ति कसे हो सकती है। आचार्य समन्तभद्रने कहा है, "थोड़े गुणोंका उल्लंघन करके बहुत्व-कथावाली स्तुति भगवान् जिनेन्द्रपर नहीं घटती, क्योंकि उनमें गुण बहुत हैं, जिनको कहना-भर भी सम्भव नहीं है।' इससे स्पष्ट है कि अपनी लघुता दिखाते हुए भगवान्की प्रशंसा करना स्तुति है । जैन-स्तुतिका अभिप्राय
यद्यपि जैन भगवान्, सामन्तवादी राजाको भौति, स्तुतियोंसे प्रसन्न होकर उपहार नहीं बांटता, उसको वीतरागता उसे ऐसा करनेसे रोकती है, फिर भी जैन-भक्तको सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं । इस रहस्यको सुलझाते हुए आचार्य समन्तभद्रने कहा है, "भगवान् जिनेन्द्रके गुणोंका सतत स्मरण और आराध्यमय हो जानेकी चाह, हृदयमें पवित्रताका संचार करती है और उस पवित्रतासे पुण्य-प्रसाधक परिणाम बढ़ते हैं।" पुण्य प्रकृतियां चक्रवर्ती तककी विभूति देने में समर्थ हैं, फिर भक्तको कामनाएँ कितनी हैं। वीतरागी भगवान् भले ही कुछ न देता हो, किन्तु उसके सान्निध्यमें वह प्रेरक शक्ति है, जिससे भक्त स्वयं सब कुछ पा लेता है। __ स्तुतिको ही स्तोत्र कहते हैं, दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है । पूजा और स्तोत्रने भेद
पूजा और स्तोत्रमें शैलीगत भेद है, भावको दृष्टिसे दोनों समान हैं, अतः उनका परिणाम भी समान ही होना चाहिए, किन्तु कुछ लोग परिणामकी दृष्टि से दोनोंमें महदन्तर स्वीकार करते हैं, वे 'पूजाकोटिसमं स्तोत्रं' मानते हैं । इसका तात्पर्य है कि एक करोड़ बार पूजा करनेसे जो फल मिलता है, वह एक बारके ही स्तोत्र-पाठसे उपलब्ध हो जाता है। यहां कहनेवालेका पूजासे तात्पर्य केवल द्रव्य-पूजासे है, क्योंकि भाव-पूजामें तो स्तोत्र भी शामिल है। "पूजकका ध्यान पूजनको बाह्य-सामग्री स्वच्छता आदिपर ही रहता है, जब कि स्तुति करनेवाले
- १. गुणस्तोकं सदुल्लंध्य तद्बहुत्वकथास्तुतिः ।
आनन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ।। आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : पं० जुगलकिशोर सम्पादित, वीर
सेवामन्दिर सरसावा, वि० सं० २००८, १८१, पृ. ६१ । २. तथाऽपि ते पुण्य-गुण-स्मृतिनः पुनाति चित्तं दुरिताअनेभ्यः ।
देखिए वही : १२२२, पृ० ४१ ।