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जैन- भक्तिकाव्यकी पृष्टभूमि
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है। इस ग्रन्थके दस अध्यायोंमें चार सौ श्लोक निबद्ध हुए हैं। वैसे तो समूचे ग्रन्थ में देवी पद्मावतीका वर्णन है, किन्तु मुख्यरूपसे तीसरा अध्याय देवी आरा
नाके नामसे गूंथा गया है। इस ग्रन्थका प्रकाशन अहमदाबाद और सूरतसे हो चुका है। अहमदाबाद के भैरव - पद्मावती कल्पके परिशिष्ट में अद्भुत पद्मावतीकल्प, पद्मावतीपूजन और रक्तपद्मावतीकल्प आदिका भी उल्लेख हुआ है ।
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जितप्रभसूरि ( १४वीं शतीवि० सं०) के विविध तीर्थकल्प में, पद्मावतीकल्प भी निबद्ध हुआ है। इसमें देवी के चमत्कारोंकी कथा है। उन्होंने 'पद्मावतीचतुष्पदी' नामका एक प्राकृत काव्य भी रचा था, जिसमें ४६ गाथाएं हैं ।" "मुनिवंशाभ्युदय कन्नड़ी भाषाका एक ऐतिहासिक काव्य है । हैं। पांचवी सन्धिमें देवी पद्मावतीका वर्णन है । सहायता से देवनन्दी प्रतीने रसायन आदि अनेक विद्याओंकी सिद्धि प्राप्त की थी । इसके अतिरिक्त श्री माणिक्यचन्द्र ( १२१७ ई०), सकलकोत्ति ( १५वीं शती ), पद्मसुन्दर ( १५६५ ई० ) और उदयवीरगणिके द्वारा लिखे गये पार्श्वनाथचरित्रोंमें भी कमठकी कथा और धरणेन्द्र तथा पद्मावतीको भक्तिका उल्लेख है ।
इस ग्रन्थ में पाँच देवी पद्मावतीकी
ब्रह्मचारी नेमिदत्तकृत आराधनाकथाकोष और देवचन्द्रकृत राजाबलिकथेमें लिखा है कि विक्रमकी सातवीं शताब्दी में होनेवाले श्री भट्टाकलंकका विवाद atarerna साथ वि० सं० ७०० में हुआ था, जिसमें उन्होंने पद्मावती देवीके द्वारा बताये गये उपायसे ही बौद्धोंकी तारादेवीको पराजित किया । राजाबलिकथे कड़ीका प्रामाणिक ग्रन्थ है, श्रीरायस महोदयने उसका अँगरेज़ी अनुवाद किया है । आराधनाकथाकोष के आधारपर यह भी विदित हुआ है कि आचार्य पात्रकेसरी ( वि० सं० छठी शताब्दी) को शंकाका समाधान श्री पद्मावती देवीने ही किया था। यह बात श्री वादिराज सूरिके न्यायविनिश्चयालंकारसे भी प्रमाणित होती है। इस घटनाका समर्थन श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ५४ से भी होता है । उसपर खुदा है - "देवी पद्मावती सोमन्धर स्वामीके समवशरणमें गयी, और
१. जिनप्रभसूरि, विविधतीर्थकरूप: सिंधी जैन ग्रन्थमाला, वि० सं० १३९०,
पृ० ९८-९९ ।
२. H. D. Velankar, Jina Ratna Kosa, Vol. I, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, 1944, p. 235. "महिमासपात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य मक्तचासीत् पद्मावती सहायात्रिलक्षणं कदनं कसुम् । ” न्यायविनिश्चयालंकार ।