________________
जैन-भक्तिके भेद
१३५
समान देदीप्यमान, अद्वितीय, यश और तेजके अधिष्ठान रूप हैं । उनके दर्शनोंसे समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ।' उन्होंने यह भी लिखा है कि जो प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या, तीनों ही काल, नन्दीश्वरकी भक्ति में स्त्रोत्र पाठ करता है, वह अनन्त काल तक रहनेवाले मोक्षको प्राप्त कर लेता है। आचार्य जिनप्रभसूरिने भी लिखा है कि नन्दीश्वर की भक्ति से मोक्ष- लक्ष्मी प्राप्त होती है । श्री कनककीर्त्तिने नन्दीश्वरद्वीप - पूजा अपभ्रंश और अष्टाह्निक- पूजा प्राकृत में लिखी है ।
१२. चैत्य-भक्ति
'चैत्य' शब्दका प्रयोग- चैत्य और
वृक्ष
'वेत्य' शब्द 'चिति' से बना है। 'चिति' का अर्थ है चिता । चितापर बने स्मृति चिह्नोंको चैत्य कहते हैं । बहुत पहले इन स्थानोंपर वृक्ष लगाये जाते थे,' जो चैत्य वृक्ष कहलाते थे । महाभारत में चैत्य- वृक्षोंके प्रति सम्मान दिखाते हुए लिखा है, " चैत्य-वृक्षोंको छोड़कर और सब छोटे-छोटे वृक्ष काट डालना चाहिए जैन-परम्परा अनादिकालसे चैत्य- वृक्षोंको पूज्य मानती आ रही है ।
»
१. येषु जिनानां प्रतिमाः पञ्चशतशरासनोच्छ्रिताः सम्प्रतिमाः । मणिकनकरजतविकृता दिनकरकोटिप्रभाधिकप्रभदेहाः ॥
तानि सदा वन्देऽहं मानुप्रतिमानि यानि कानि च तानि । यशसां महसां प्रतिदिशमतिशयशोमाविभाजि पापविमति ॥
आचार्य पूज्यपाद, संस्कृत नन्दीश्वरभक्ति : 'दशभक्तिः' : श्लोक २५-२६ ।
२. सन्ध्यासु तिसृषु नित्यं पठेद्यदि स्तोत्रमेतदुत्तमयशसाम् ।
सर्वज्ञानां सार्व लघु लमते श्रुतधरेडितं पदममितम् ॥
श्राचार्य पूज्यपाद, संस्कृत नन्दीश्वरभक्ति : दशभक्त्यादिसंग्रह: पथ ३७, पृ० २१६ |
३. वर्ष-दीप- दिनारब्धानुपवासान् कुहुतिथौ । कुर्वन्नन्दीश्वरोपास्त्यै श्रायसीं श्रियमर्जयेत् ॥
आचार्य जिनप्रभसूरि, नन्दीश्वरद्वीपकल्पः, विविधत्तीर्थकल्प : श्लोक ४६,
पृ० ४९ ।
४. आमेर शास्त्रमण्डार जयपुरकी ग्रन्थ सूची : पृ० ७९ ।
५. राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोंकी प्रन्थ सूची : भाग २, पृ० ५६ । Mahabharat, Pratapchandra Roy's Translation, B.K. XII. 39.